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________________ यदि चूक गये तो रत्नत्रय धर्म में तथा उसके फल में प्राप्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति में प्रतीति करके उत्साहपूर्वक रत्नत्रय की साधना-आराधना करना संवेग है तथा शरीर, भोग और संसार के प्रति विरक्त परिणाम निर्वेद है। ७२ १. पर - स्त्रियों के समागम में अधिक देर एकान्त में न रहना। २. परस्त्रियों को रागभरी दृष्टि से न देखना। ३. पर स्त्रियों से परोक्ष में गुप्त पत्राचार और फोन आदि पर वार्ता न करना । ४. पूर्व में भोगे भोगों को स्मरण नहीं करना । ५. कामोत्तेजक गरिष्ठ भोजन नहीं करना । ६. कामोत्तेजक श्रृंगार नहीं करना । ७. पर-स्त्रियों के आसन, पलंग आदि पर नहीं बैठना न सोना । ८. कामोत्तेजक, कथा, गीत आदि नहीं सुनना । ९. भूख से अधिक भोजन नहीं करना। इनका उल्लंघन करने से अपने सदाचार और संयम का घात होता है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, लोक में अपयश होता है। -- स्वर्ग के इन्द्र देव यद्यपि सबप्रकार से सुख सम्पन्न, महाधैर्यवान, बड़ीबड़ी ऋद्धियों के धारक और वैभव से सम्पन्न होते हैं, तथापि उन्हें भी वह छोड़ना ही पड़ता है। इसलिए संसार और संयोगों की ऐसी क्षणभंगुरता जानकर पुनरागम रहित मुक्ति की साधना में ही आत्मार्थियों को अपना उपयोग लगाना चाहिए। -- जिनके विषयों की आशा समूल समाप्त हो गई है, जो हिंसोत्पादक आरंभ और परिग्रह से सर्वथा दूर रहते हैं तथा ज्ञान-ध्यान व तप में लीन रहते हुए निरन्तर निज स्वभाव को साधते हैं, वे साधु हैं । वीतरागी मुनिराज सदा त्रिकाल सामायिक, स्तुति, वंदना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कार्योत्सर्ग करते हैं। उनकी ये क्रियायें प्रतिदिन अवश्य करने योग्य हैं अतः आवश्यक कहलाती है; किन्तु मुनिराज इन्हें सहजता एवं स्वाधीनता से करते हैं। उन्हें ये खेंचकर नहीं करनी पड़ती। -- -- (३७) शलाका पुरुष भाग-१ से जैनदर्शन की दार्शनिक व्याख्या के अनुसार अथवा शास्त्रीय दृष्टिकोण से निर्ग्रन्थ साधु की निर्मल परिणति में अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का अभाव हो जाता है; इसकारण निर्ग्रन्थ मुनिराजों को इस भूमिका में वस्त्र धारण करने का भाव ही नहीं आता। अतः वे नग्न रहते हैं। ➖➖ ७३ दिगम्बर जैन साधुओं की निर्ग्रन्थता, निर्दोषता, निर्विकारिता, निर्पेक्षता, निर्भयता, निश्चिंतता और सहज स्वाभाविकता की परिचायक है। दिगम्बरत्व की स्वाभाविकता, सहजता और निर्विकारिता के साथ उसकी नग्नता की अनिवार्यता से अपरिचित कतिपय महानुभावों को मुनिराज की नग्नता में जो असभ्यता व असामाजिकता दृष्टिगोचर होती है, वह उनके स्वयं की समझ और सोच का फेर है। ऐसे लोग समय-समय पर नग्नता जैसे सर्वोत्कृष्ट रूप से नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं, घृणा का भाव भी व्यक्त करते रहते हैं। उन्हें एक बार नग्नता को निर्विकारी दृष्टि से देखना चाहिए। अन्य दर्शनों में भी नग्नता को ही साधु का उत्कृष्ट रूप माना गया है। परमहंस नामक परमत के साधु भी नग्न रहते हैं। -- -- इतिहास एवं इतिहासातीत श्रमण एवं वैष्णव साहित्य में यहाँ तक कहा गया है कि दिगम्बर हुए बिना मोक्ष की साधना एवं कैवल्य प्राप्ति संभव नहीं है। अतः नग्नता से नफरत करना, घृणा करना अपने ही धर्म, संस्कृति, पुरातत्त्व एवं सत्य से घृणा करना है। सचमुच मोक्ष का सुख तो अनुपम है, उससे संसार के किसी भी सुख तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वह सम्पूर्ण इच्छा के अभाव में है। की जितनी इच्छायें कम होंगी, उतना ही निराकुल सच्चा सुख अधिक होगा। भोग-सामग्री सुख का साधन नहीं है। अतः यदि हम सचमुच सच्चा
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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