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________________ ७० शलाका पुरुष भाग-१से ७१ यदिचूक गये तो पुण्योदय से प्राप्त ये भोग जो प्रारंभ में अच्छे लगते हैं, पाप का उदय आने पर ये भारी संताप देते हैं। यह आयु भी अंजुली के जल के समान प्रत्येक पल में क्षीण होती जा रही है। ये रूप आरोग्यता, ऐश्वर्य, प्रिय बन्धुबान्धवों एवं प्रिय स्त्री का प्रेम सब क्षणभंगुर हैं। और लोक की अनादिनिधन स्वतंत्र-स्वसंचालित विश्वव्यवस्था समझना और इन पर श्रद्धान करना ही दर्शनविशुद्धि है, सम्यग्दर्शन है। -- ___ यह सम्यग्दर्शन ही सर्व सुखों का साधन है। इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ है, वही कृतार्थ है, उसी का जीवन धन्य है, जिसके हृदय में निर्दोष समकित सूर्य प्रकाशमान है। यह समकित (सम्यक्दर्शन) दुर्गति को रोकने वाला है, यही स्वर्ग का सोपान और मोक्ष महल का द्वार है। -- संसार में जन्म-मरण आदि किसके नहीं होते? स्वर्ग से च्युत होना बहुत साधारण बात है; क्योंकि यह स्वर्ग का वैभव तो पुण्य का फल है जो पुण्य क्षीण होने पर छोड़ना ही पड़ता है। जिस स्वर्ग सुख के लिए अज्ञानी लालायित रहता है, उस स्वर्ग की अवधि समाप्त होते ही वे सब भोग आदि के सुख तीव्र दुःख में परिवर्तित हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव स्त्री पर्याय में, नीचे के छह नरकों में, भवनवासी, व्यंतर आदि नीचे देवों में उत्पन्न नहीं होता। लोक में १. सज्जाति २. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत) ३. पारिवाज्य (मुनियों के व्रत) ४. सुरेन्द्र पद ५. चक्रवर्ती पद ६. अरहंत पद ७. सिद्धपद - ये जो सात परमस्थान हैं, उत्कृष्ट स्थान हैं। सम्यग्दृष्टि जीव ही क्रम-क्रम से इन परमस्थानों को प्राप्त होता है। यदि दो महत्त्वपूर्ण कार्य करने के समाचार एक साथ मिलें तो सर्वप्रथम धर्मकार्य ही करना चाहिए। जिन भोगों को हम सुख के साधन समझते हैं, वे मूलतः पापभाव होने से आगामी काल में दुःख के कारण तो होते ही हैं; कभी-कभी वर्तमान में भी प्राणघातक बन जाते हैं। यह निर्विवादरूप से सत्य है कि वीतराग धर्म से सुख की प्राप्ति होती है और मिथ्यात्व रूप अधर्म सेवन से दुःख मिलता है। इसलिए बुद्धिमान जीव पाप बुद्धि और मिथ्या मान्यताओं को छोड़कर वीतराग धर्म में तत्पर होते हैं। पाप का फल अत्यन्त कटु होता है। नरक-निगोद में पड़े जीव को एक पल की भी शान्ति नहीं मिलती। नरकों के सिवाय संसारी जीव जिस पर्याय में जाता है, उसे छोड़ने में उसे दुःख होता ही है। भावी तीर्थों का जीव ललितांग देव यद्यपि मनुष्यपर्याय में आनेवाला था, तो भी वह दुःखी हुआ। उसकी दीनता देखकर उसके सेवक भी उदास हो गये। उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानो पूरे जीवन भर के सुख, दुःख बनकर आ गये हों। जो व्यक्ति पाँचों पापों में एवं सात व्यसनों में संलग्न है। धर्म के सही स्वरूप को न पहिचान कर मिथ्यामार्ग पर चलता है, क्रूर है, रौद्रध्यानी है, विषयों का सेवन करके एवं पापकार्यों को करके प्रसन्न होता है, अति आरंभ करता है और परिग्रह संग्रह में तत्पर रहता है - वह नियम से नरक गति में जाकर दिन-रात असह्य दुःख का वेदन करता है। देशनालब्धि आदि बहिरंग कारण और करणलब्धि रूप अंतरंग कारण द्वारा भव्यजीव दर्शन विशुद्धि प्राप्त करते हैं। सर्वज्ञकथित छह द्रव्य, साततत्त्व (३६)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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