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________________ शलाका पुरुष भाग-१से एवं उनके सेवन को पाप का कारण बताकर पापों से छुड़ाना है। इस कारण ये कथायें विकथायें नहीं हैं। शलाका पुरुष भाग-१ से~ तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि पदों के धारक प्रसिद्ध पुरुषों को शलाका पुरुष कहते हैं। इस युग में त्रेसठ शलाका पुरुष हुए जो इसप्रकार हैं - २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण और ९ बलभद्र । ये ६३ महापुरुष धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर अल्पकाल में ही मुक्त हो जाते हैं। उपर्युक्त ६३ के सिवाय तीर्थंकरों के माता-पिता, नारद, रुद्र, कामदेव और कुलकर - इसप्रकार शलाका महापुरुषों की संख्या १६९ भी आगम में है, इनमें कुछ पुरुष ऐसे भी हैं जो दो-दो, तीन-तीन पदों के धारक हैं; तीर्थंकरों में कामदेव भी हैं, चक्रवर्ती भी हैं। इसप्रकार इस काल में ६३ शलाका पुरुषों की संख्या ५८ ही रह गई है। मरने के बाद भी भूत-प्रेत के रूप में भटकती आत्माओं का अस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि भविष्य में भी ये जीवात्मायें अपने पुण्य-पाप के अनुसार ही चौरासी लाख योनियों में भटकते हैं और मोक्षमार्ग मिल जाये तो मुक्त भी हो जाते हैं, यही जीव का परलोक कहलाता है। इसके सिवाय जातिस्मरण से, जीवन-मरणरूप आवागमन से और आप्तप्रणीत आगम से भी जीव का अनादि-अनन्त अस्तित्व सिद्ध होता है। जब तक विषयों में सुखबुद्धि रहेगी तब तक विषयासक्ति छोड़ना संभव नहीं है। अतः तत्त्वज्ञान के यथार्थज्ञान से सर्वप्रथम, इस सत्य को समझना आवश्यक है कि - 'संयोगों में सुख है ही नहीं। -- राज्यशासन और गृह में रचे-पचे रहना दुःख का ही मूल है। यह यौवन क्षणभंगुर है और ये पंचेन्द्रिय के भोग बारम्बार भोगने पर भी तृप्ति नहीं देते। इनसे तृप्ति होना तो दूर ही रहा, ये तो तृष्णा की ज्वाला में जलाते हैं। यह शरीर भी व्याधि का घर और नश्वर है। ये बन्धुजन बन्धन ही हैं। धन दुःख देनेवाला है; क्योंकि लक्ष्मी अति चंचल है, सम्पदायें वस्तुतः विपदायें ही हैं; अतः इन्हें यथासंभव शीघ्र छोड़ ही देना चाहिए। -- प्रश्न - पुराणों में भोगप्रधान जीवन जीने वाले राजा-महाराजाओं एवं युद्ध आदि की विषयवस्तु पढ़ने से यह आशंका स्वाभाविक है कि ये कथायें तो स्पष्ट विकथायें हैं; फिर इन्हें धर्मकथाओं में सम्मिलित क्यों किया गया है? उत्तर - वस्तुतः कथानकों के रूप में लिखे गये प्रथमानुयोग के शास्त्रों का प्रयोजन पुण्योदय से प्राप्त भोगों को असार, आकुलताजनित बताना है कषायों और पंचेन्द्रिय के विषयों के साथ भोजन का त्याग ही उपवास है। यदि यह नहीं है तो केवल आहार का त्याग तो लंघन ही है। आचार्यों ने कहा है 'कषायाविषयाहारो त्यागो यत्र विधियते । उपवासः सः विज्ञेया, शेषं लंघनकम विदुः।।' -- -- भोगों से कभी किसी को संतोष नहीं होता। वस्तुतः हम भोगों को नहीं भोगते; बल्कि हमारे बहुमूल्य जीवन को ये भोग ही भोग लेते हैं अर्थात् भोगों का तो कोई अन्त नहीं होता, हमारा ही अन्त हो जाता है। -- -- जिस सम्पदा पर एवं भोगोपभोगों की सुखद सामग्री पर हम गर्व करते है, वह सब इन शरद ऋतु के बादलों की भाँति क्षणभर में विलीन होने वाले हैं, नष्ट होनेवाले हैं। यह लक्ष्मी बिजली के समान चंचल एवं क्षणभंगुर है। (३५)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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