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________________ ७४ यदिचूक गये तो सुख चाहते हैं तो सम्पूर्ण संसार को असार जानकर मुक्ति की साधना करनी होगी। शलाका पुरुष भाग-१ से आठ प्रकार के लोकान्तिकदेव अपने पूर्व भव में श्रुतकेवली होते हैं, वे एक भवावतारी होते हैं, उनके लोक का अन्त आ गया, इसकारण उन्हें लोकान्तिक कहते हैं। यह तो मनोवैज्ञानिक सत्य और वास्तविक तथ्य है कि जब कोई बड़ा काम होता है तो पहले वह हमारे सपने में अवतरित होता है, बाद में भौतिक रूप से साकार रूप लेता है। यही कारण है कि तीर्थंकरों के जन्म के पूर्व उनकी माता को १६ शुभ स्वप्न आते हैं। तीर्थंकर स्वयं दीक्षित होते हैं, उनका कोई गुरु नहीं होता। वे किसी से दीक्षा लेते भी नहीं और किसी को देते भी नहीं है। वे स्वयं दीक्षा लेकर जीवनभर को मौनधारण कर लेते हैं। वे किसी को साथ नहीं रखते। वे तो एकल विहारी ही होते हैं। विद्या ही सच्चा भाई है, विद्या ही सच्चा मित्र है और विद्या ही सदा साथ रहने वाले धर्मज्ञान का साधन है। इसे चोर चुरा नहीं सकते, राजा हड़प नहीं सकते। भाई बाँट नहीं सकते, यह खर्च करने पर घटती नहीं; बल्कि दूसरों को बांटने पर बढ़ती है अतः विद्या धन सब धनों में प्रधान है। और हाँ, सर्वविद्याओं में अध्यात्म विद्या का तो कहना ही क्या है? वह तो सर्वश्रेष्ठ है ही। इससे सर्व मनोरथ पूर्ण होते हैं। अतः अध्यात्म विद्या का अर्जन करना सर्वोत्तम है। पाँच पापों के त्यागरूप पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपक एवं प्रतिष्ठापना रूप पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छह आवश्यक, केशलुंच, भूमिशयन, नग्नता, अदन्तधोवन, अस्नान दिन में एक बार खड़े-खड़े अल्प आहार लेना और एक करवट से रात्रि के पिछले प्रहर में श्वानवत् निद्रा लेना - ये २८ मूलगुण हैं वे इनका निरति चार (निर्दोष) रूप से पालन करते हैं तथा नंगे पाल पैदल ही चलते हैं। यथार्थ में मनुष्य के द्वारा सत्कर्मों से उपार्जित पुण्य ही जगत में सुखद संयोग देने वाला है। अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ भी मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है। आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा को त्यागने योग्य मानते हुए भी गृहस्थ की भूमिका में त्याग संभव नहीं होता, क्योंकि जबतक कषायों की तीन चौकड़ी विद्यमान होती है तबतक आरंभ और उद्योग में हिंसा होती ही है; पर उसका उसमें उद्देश्य हिंसा करना नहीं, बल्कि प्रजा का संरक्षण, पालनपोषण और आजीविका देना होता है। संयोगों और संयोगी भावों में महान अन्तर होने पर भी दोनों की भूमिका एक-सी ही है। अतः संयोगीभावों के आधार पर राग या वैराग्य का निर्णय करना उचित नहीं है। ज्ञानी-अज्ञानी का निर्णय भी संयोग और संयोगी भावों के आधार पर नहीं किया जा सकता। वात-पित्त-कफ आदि दोषों को दूर करने के लिए उपवास (भोजन का त्याग) करते हैं तथा प्राणधारण के लिए शुद्ध एवं विधिवत आहार भी ग्रहण करते हैं। परमाणु आदि सूक्ष्म हैं, राम आदि अन्तरित अर्थात् काल से दूर हैं और मेरू पर्वत आदि क्षेत्र से दूर हैं - उन सभी को केवलज्ञान स्पष्ट जानता है। केवली भगवान किसी पदार्थ को जानने के लिए उसके पास नहीं जाते और पदार्थ को जानने के लिए उसके पास नहीं जाते और पदार्थ भी उनके पास नहीं आते; फिर भी सभी पदार्थ बिना यत्न के ही दर्पणवत् प्रतिसमय (३८)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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