________________
हरिवंश कथा से
यदिचूक गये तो इसे न मानें तो संसारी व सिद्ध में भेद नहीं रहने से चरणानुयोग व करणानुयोग के विषय का क्या होगा?
सामान्यरूप से बन्धप्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेदरूप हैं।
--
अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय - पर्याय-पर्यायवान् एवं गुण-गुणी में भेद करना । जैसे - आत्मा में केवलज्ञान आदि अनन्तगुण एवं शक्तियाँ हैं। इसे न मानने से स्वभाव की सामर्थ्य का ज्ञान नहीं होगा।
--
--
प्रकृति का अर्थ है स्वभाव । जिसप्रकार नीम की प्रकृति कड़वी (तिक्त) है, उसी तरह ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति ज्ञान पर आवरण करना है।
कर्मों को अपने स्वभाव में टिकाये रखना स्थितिबंध है। जैसे - कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध जो कर्म की शक्ति विशेष (तीव्र अथवा मंदभावों) से रहती हैं वह अनुभाग बंध है। और कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्धों के समूह में परमाणु के प्रमाण से भासित खण्डों की संख्या प्रदेश बंध है।
आत्म परिणामों में स्थित मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये बन्ध के कारण हैं। इनमें मिथ्यादर्शन (निसर्गज) अगृहीत और अन्योपदेशज (गृहीत) के भेद से दो प्रकार का है। मिथ्यात्वकर्म के उदय से अनादिकाल से चली आ रही तत्त्व की अश्रद्धा अगृहीत मिथ्यादर्शन है और दूसरों के उपदेश से अतत्त्व की श्रद्धा होना गृहीत मिथ्यात्व है।
अजीवतत्त्व - जीव संबंधित अजीव पदार्थ अजीवतत्त्व हैं। अजीवतत्त्व की संरचना अपनी-अपनी योग्यतानुसार तज्जातीय पुद्गल स्कन्धों से स्वतः ही होती रहती है। ऐसी सामर्थ्य पुद्गल स्कन्धों में स्वयं की है।
इस शरीर में एकत्व से ही ये संसारी जीव अटके हैं। स्वयं जीव हैं, उसे तो जानते-पहचानते नहीं और शरीर को ही सब कुछ मानकर बहिरात्मा बना है। अतः इसे अवश्य जानें।
--
आम्रवतत्त्व - काय, वचन एवं मन की क्रिया को योग कहते हैं, योग की क्रिया से कार्माण वर्गणाओं का आना आस्रव कहलाता है। उसके शुभ-अशुभ दो भेद हैं।
आस्रव के स्वामी दो हैं - कषाय सहित जीवों को जो आस्रव होता है उसका नाम साम्परायिक है और कषायरहित जीवों को जो आस्रव होता है उसका नाम ईर्यापथ आस्रव है। साम्प्रदायिक आस्रव दुःखद हैं, इन्हें जानकर इनका त्याग कर दें।
--
--
एकांत, विपरीत, विनय, संशय व अज्ञान - ऐसे पाँच भेद तो हैं ही; क्रियावादी, अक्रियावादी, वैनयिक और अज्ञानी के भेद से चार भेद भी
आगम में गिनाये हैं। इनमें वैनयिक और अज्ञान तो दोनों भेदों में समान ही हैं; शेष तीन में असमानता है।
पाँच इन्द्रिय और मन को वश में नहीं करना एवं छहकाय के जीवों की रक्षा नहीं करना यह १२ प्रकार की अविरति है। पंद्रह प्रकार का प्रमाद और पच्चीस कषायें तथा पंद्रह प्रकार का योग ये सब बन्ध के कारण हैं।
प्रकृति और प्रदेशबंध योग के निमित्त से होता है तथा स्थिति व अनुभाग में कषाय निमित्त होती है।
बन्धतत्त्व - कषाय से कलुषित जीव प्रत्येक क्षण कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध कहलाता है। यह बन्ध अनेक प्रकार का है,
(२९)