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यदि चूक गये तो आस्रव का रूक जाना संवर है। यह भाव संवर और द्रव्य संवर के भेद दो प्रकार का है। संसार की कारणभूत रागादि क्रियाओं का रुक जाना भाव संवर है और कर्मरूप पुद्गल द्रव्य का आना रुक जाना द्रव्य संवर है। तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षायें, पाँच प्रकार का चारित्र और बाईस परिषहजय - ये संवर के कारण हैं।
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जैन भूगोल के अनुसार जम्बूद्वीप के दक्षिण में जो गंगा-सिन्धु के बीच भरत क्षेत्र है, वहाँ भोगभूमि की समाप्ति तथा कर्मभूमि के प्रारंभ में चौदह कुलकर हुये, उनमें पहला कुलकर प्रतिश्रुत था। यह प्रभावशाली व्यक्तित्व का धनी पूर्वभव के संस्मरण से सहित था। उसके समय प्रजा को अक्समात् पूर्णमासी के दिन प्रथम बार आकाश में एक साथ दो चमकते हुए बिम्ब दिखाई दिये। उन्हें देख प्रजा के लोग अपने ऊपर आये भयंकर उत्पात की आशंका से भयभीत हो उठे तथा सभी प्रजा प्रतिश्रुत कुलकर की शरण में आ गई। तब प्रतिश्रुत ने कहा- आप लोग भयभीत न हों। ये पश्चिम में सूर्यमण्डल और पूर्वदिशा में चन्द्रमण्डल दिखाई दे रहा है। ये दोनों ज्योतिषी देवों के स्वामी हैं, भ्रमणशील हैं एवं निरन्तर सुमेरू पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुये घूमते रहते हैं। पहले भोगभूमि के समय इनका प्रकाश (प्रभा पुंज) ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों से आच्छादित तथा इसकारण ये दृष्टिगोचर नहीं थे। अब उनकी प्रभाक्षीण हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं। अब सूर्य के निमित्त से दिन-रात प्रकट होंगे और चन्द्रमा के निमित्त से कृष्णपक्ष व शुक्लपक्ष का व्यवहार चलेगा। दिन में चन्द्रमा सूर्य के तेज से अस्त जैसा हो जाता है, स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होता और सूर्यास्त के बाद रात को स्पष्ट दिखाई देने लगता है।
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प्रतिश्रुत नाम के इन प्रथम कुलकर ने ही भोगभूमि के अंत और कर्मभूमि
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हरिवंश कथा से
के प्रारंभ होने से उत्पन्न इन भयों के कारण उत्पन्न राज्य की अव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिये हा। मा।। और धिक।।। दण्ड की ये तीन धारायें स्थापित की। यदि कोई स्वजन या परजन काल दोष से मर्यादा को लांघता था तो उसके साथ अपराधी के अनुरूप इन दण्डों का प्रयोग किया जाता था।
इन्हीं प्रतिश्रुत के कुल में क्रमशः सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विपुल वाहन, चक्षुस्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित और अन्तिम चौदहवें कुलकर के रूप में राजा नाभिराय हुये । राजा नाभिराय और मरुदेवी के पुत्र के रूप में ही वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म हुआ।
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ये १४ कुलकर समचतुरस्र संस्थान (सुडौल शरीर) और वज्रवृषभनाराच संहनन (वज्र के समान सुदृढ़ शरीर) के धारक थे। इन्हें अपने-अपने पूर्वभव का स्मरण ज्ञान था। इनकी मनु संज्ञा थी अर्थात् ये मनु कहलाते थे ।
यह अटल नियम है कि होनी को कोई टाल नहीं सकता, जब जिसके निमित्त से जो होना है, वही तभी उसी के निमित्त से होकर रहता है, उसे इन्द्र और जिनेन्द्र भी आगे-पीछे नहीं कर सकते, टाल भी नहीं सकते।
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दूसरों का अपकार करने वाला पापी मनुष्य दूसरों का वध तो एक जन्म में करता है, पर उसके फल में उस पापी का वध जन्म-जन्म में होता है। तथा वह अपना संसार बढ़ा लेता है।
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बहुत भले काम करने पर भी यदि कभी किसी का जाने / अनजाने दिल दुःखाया होगा, या हम से किसी का अहित हो गया होगा अथवा अपने कर्तृत्व के झूठे अभिमान में हमने पापार्जन किया होगा तो वह भी