SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदिचूक गये तो से सम्पन्न हैं। ये ही जीव की पहचान हैं। यह जीव स्वयं द्रव्यरूप हैं, ज्ञातादृष्टा है, स्वयं का कर्ता-भोक्ता है, उत्पाद-व्ययरूप है, असंख्यात प्रदेशी हैं। गुणों का समुदाय है, संकोच-विस्ताररूप है। अपने शरीर प्रमाण है। वर्णादि बीस गुणों से रहित है। हरिवंश कथा से एकदेशशुद्धनिश्चयनय - इस नय से मतिश्रुतज्ञानादिपर्यायों को जीव का कहा है। जैसे - मतिश्रुत-ज्ञानी जीव । अशुद्धनिश्चयनय - यह नय आत्मा को रागादि विकारी भावों से सहित होने से रागी-द्वेषी-क्रोधी-ज्ञानी आदि कहता है। -- वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं, उनमें अन्य सबको गौण रखकर किसी एक को मुख्य करके कथन करना नय का काम है। इसके द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक दो भेद हैं। इनमें द्रव्यार्थिकनय वस्तु के यथार्थस्वरूप को कहते हैं। ये ही दो मूलनय हैं। दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। ज्ञातव्य है कि कहीं-कहीं परम शुद्ध निश्चयनय के सिवाय शुद्ध निश्चयनय के तीनों भेदों का प्रयोग व्यवहारनय के रूप में भी प्रयोग किया है। अतः अर्थ समझने में सावधानी की जरूरत है। वस्तुतः तो निश्चयनय एक ही है, परन्तु प्रयोजनवश इसके चार भेद किये गये हैं। मूल में तो दो भेद ही किए हैं। एक शुद्ध निश्चयनय, दूसरा अशुद्धनिश्चयनय । पुनः शुद्ध निश्चयनय के तीन भेद किए। १. परमशुद्ध निश्चयनय २. साक्षात शुद्ध निश्चयनय ३. एकदेश शुद्ध निश्चयनय । इस प्रकार इसके निम्नांकित चार भेद हो गये। व्यवहारनय का कार्य एक अखण्ड वस्तु में गुण-गुणी एवं पर्यायपर्यायवान आदि भेद करके तथा देह व जीव आदि दो भिन्न द्रव्यों में अभेद करके वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना है। व्यवहारनय के भी मूलतः चार भेद हैं - ___ उपचरित असद्भूतव्यवहारनय - इस नय से संश्लेष सम्बन्ध रहित परद्रव्य जैसे स्त्री-पुत्र, परिवार एवं धनादि को अपना कहा जाता है। इसे न मानने से स्वस्त्री-परस्त्री का विवेक नहीं रहेगा, निजघर-परघर, निजधनपरायाधन आदि का व्यवहार संभव न होने से नैतिकता का ह्रास होगा। लोक व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी। परमशुद्धनिश्चयनय - इसका विषय पर व पर्याय से रहित अभेदअखण्ड नित्य वस्तु है। अतः इसका कोई भेद नहीं होता। इस नय की विषयवस्तु ही दृष्टि का विषय है। साक्षात् शुद्धनिश्चयनय - यह नय आत्मा को क्षायिक भावों से (केवलज्ञानादि से) सहित बताता है। ध्यान रहे, इस दूसरे भेद का एक नाम शुद्ध निश्चयनय भी है, जो मूलनय के नाम से मिलता-जुलता है; अतः अर्थ समझने में सावधानी रखें। अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय - इस नय से संश्लेष सम्बन्ध सहित देह को ही जीव कहा जाता है, जिसे न मानने से द्रव्यहिंसा से बचाव नहीं हो सकेगा अर्थात् राख (भस्म) मसलना और पंचेन्द्रिय जीव का गला दबाना एक समान हो जायेगा। उपचरितसद्भूतव्यवहारनय - यह नय विकार एवं गुण-गुणी में भेद करके उन्हें जीव कहता है। जैसे राग का कर्ता जीव, क्रोध का कर्ता जीव । (२८)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy