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________________ यदिचूक गये तो रौद्रध्यान - क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं। उसको जो पापों में आनन्द मानने रूप ध्यान होता है, उसे रौद्रध्यान कहते हैं। यह हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द के भेद से चार प्रकार का होता है। जिसको हिंसा आदि पापों में आनन्द आता है, अभिरूचि होती है, वह हिंसानन्द, मृषानन्द आदि रौद्रध्यान है। यह बाह्य व आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है। १. क्रूर व्यवहार करना. गाली आदि अशिष्ट (अभद्र) वचन बोलना बाह्य रौद्रध्यान है। २. अपने आप में पाया जाने वाला हिंसा आदि कार्यों में समरम्भसमारम्भ एवं आरंभ रूप प्रवृत्ति अभ्यन्तर रौद्रध्यान है। अपनी कल्पित युक्तियों से दूसरों को ठगना मृषानन्द रौद्रध्यान है। प्रमादपूर्वक दूसरों के धन को जबरदस्ती हरने का अभिप्राय रखना स्तेयानन्द रौद्रध्यान है। चेतन-अचेतन परिग्रह का रक्षा का अभिप्राय रखना, ये मेरे हैं, मैं इनका स्वामी हूँ, इसप्रकार निरंतर चिन्तन करना परिग्रहानन्दी रौद्रध्यान है। हरिवंश कथा से विपाक विचय - कर्मों के फल का विचार करना। विराग विचय - शरीर अपवित्र है, भोग मधुर विषफल के समान मृत्यु के कारण हैं - इनसे विरक्त होने रूप चिन्तन । भव विचय - चतुर्गति भ्रमणरूप अवस्था भव है और यह भव दुःखमय है - ऐसा चिन्तन करना। संस्थान विचय - लोक के आकार का विचार करना। आज्ञा विचय - इन्द्रियों से अगोचर बंध-मोक्षादि में भगवान की आज्ञानुसार चिन्तन करना। हेतु विचय - स्याद्वाद की प्रक्रिया का आश्रय लेकर समीचीन मार्ग का चिन्तवन। __ यह धर्मध्यान चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, स्वर्ग का साक्षात् एवं मोक्ष का परम्परा कारण है। सभी जीव दुःख से मुक्त होना चाहते हैं, सुखी होना चाहते हैं, सदा सुखी रहना चाहते हैं, सच्चे सुख को पाने का उपाय एकमात्र आध्यात्मिक अध्ययन और आत्मध्यान से होता है। वह उपाय सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समुदायरूप है। जीवादि सात तत्त्वों का निर्मल श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। धर्मध्यान - शास्त्रों के अर्थ की खोज करना, शीलव्रत का पालन करना, गुणों के समूह में अनुराग करना, शरीर को निश्चल रखना, व्रतों से युक्त होना - ये धर्मध्यान के बाह्य लक्षण हैं। यह धर्मध्यान अपाय, उपाय, जीव, अजीव, विपाक, विराग, भव, संस्थान, आज्ञा और हेतु के भेद से १० प्रकार का है। अपाय विचय - त्याग का विचार । मन-वचन-काय की चंचल प्रकृति का त्याग कैसे हो? इसका विचार । उपाय विचय - पुण्यरूप योग प्रवृत्तियाँ किसप्रकार संभव हैं - ऐसा विचार करना। जीव विचय - अनादि-अनन्त, सादि-सान्त आदि जीव के स्वभाव का चिन्तन करना। अजीव विचय - अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तन करना। जीव का लक्षण उपयोग है। वह उपयोग आठ प्रकार का है। मति, श्रुत, अवधि - ये तीन सम्यक् एवं मिथ्यारूप होते हैं। मन, पर्यय और केवलज्ञान मात्र सम्यक् ही होते हैं। इसप्रकार सब मिलाकर उपयोग के आठ भेद हुए। -- ____ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सांसारिक सुख-दुःख - ये सब चिद्विकार हैं, भगवान आत्मा अनादि-अनंत हैं, विज्ञानघन हैं, अनंतगुण एवं अनन्तशक्तियों (२७)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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