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यदिचूक गये तो अपेक्षा/आशा करनी पड़ती हो, दूसरों का मुँह देखना पड़ता हो, वे दूसरों के लिए क्या वरदान देंगे? उनकी क्या रक्षा करेंगे?
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मनुष्य की सम्यक्श्रद्धा ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति का कारण है। अतः सर्वप्रथम देव-शास्त्र-गुरू एवं साततत्त्व की तथा आत्मा के स्वरूप की सम्यक् श्रद्धा होना अनिवार्य है; क्योंकि व्रत, तप, शील, संयम आदि सम्यक्दर्शन की शुद्धि से ही निर्मल होते हैं; अतः सर्वप्रथम अन्य रागी-द्वेषी देवी-देवताओं से रहित वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू तथा सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना चाहिए।
हरिवंश कथा से हुई... तब भी दुःखी ही रहती है। इसप्रकार न जाने कितने दुःख नारियों के होते हैं। अतः ऐसी दुःखद स्त्रीपर्याय में न जाना हो, इस पर्याय से सदा के लिए मुक्त होना हो तो मायाचार, छलकपट का भाव और वैसा व्यवहार छोड़ें तथा सम्यग्दर्शन की आराधना करें तथा तत्त्वज्ञान का कोई अवसर न चूकें।
पीड़ा को आर्ति कहते हैं। आर्ति के समय जो ध्यान होता है, उसे आर्तध्यान कहते हैं। यह आर्तध्यान कृष्ण, नील व कापोत लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है। बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से यह आर्तध्यान दो प्रकार का है। रोना, दुःखी होना आदि तथा दूसरों की लक्ष्मी देख ईर्ष्या करना और विषयों में आसक्त होना आदि बाह्य आर्तध्यान है।
अपना आर्तध्यान स्वसंवेदन से जाना जाता है। और दूसरों का अनुमान से। आभ्यन्तर आर्तध्यान के चार भेद हैं। अभीष्ट वस्तु की उत्पत्ति न होने से चिन्ता करना, अनिष्ट संयोग से दुःखी होना, चिन्तित रहना, इष्टवस्तु का कभी वियोग न हो जाय - ऐसी चिन्ता करना अनिष्ट वस्तु का संयोग न हो जाय - ऐसी चिन्ता आर्तध्यान है।
कोई कितनी भी तैयारी करे, कितनी भी चक्रव्यूहों की रचना में अपनी चतुराई दिखाये, किन्तु जिसने धर्माचरण द्वारा विशेष पुण्यार्जन किया होगा - वही विजयी होगा। युद्ध में विजय तो एक पक्ष की ही निश्चित है। जिसके पल्ले पुण्य कम होगा, उसे तो हारना ही है, अतः चक्रव्यूह के साथ अपने परिणामों के दुष्चक्र को भी सुधारना चाहिए; क्योंकि लौकिक सफलता प्राप्त करने में पराक्रम के साथ पुण्य का भी योगदान होता है। --
-- जिस तरह सैकड़ों नदियां भी समुद्र से सन्तुष्ट नहीं कर पाती; उसी तरह सांसारिक सुख के साधन जीवों का दुःख दूर नहीं कर पाते हैं।
-- ये प्राणी स्त्रीपर्याय में तीनोंपन में पराधीन रहता है। बचपन में पिता के आधीन, युवावस्था में पति के आधीन और बुढ़ापे में पुत्र के आधीन । और पराधीनता में स्वप्न में भी सुख नहीं है। यदि पति या पुत्र दुर्बल हुआ, बीमार हुआ, अल्प आयु हुआ, मूर्ख हुआ, क्रोधी, मानी या लोभी और दुर्व्यसनी हुआ तब तो महादुःख है ही और यदि स्वयं बंध्या हुई, मृत संतान
पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान शारीरिक व मानसिक के भेद से दो प्रकार का है - वातव्याधियाँ वायु के प्रकोप से उत्पन्न उदरशूल, नेत्रशूल, दन्तशूल आदि नाना प्रकार की दुःसह शारीरिक बीमारियों से पीड़ा होना शारीरिक पीड़ाचिन्तन आर्तध्यान हैं। शोक, अरति, भय, उद्वेग विषाद आदि बैचेनी मानसिक दुःख से दुःखी होना मानसिक आर्तध्यान हैं।
ये आर्तध्यान तिर्यंचगति का कारण है।