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यदिचूक गये तो
___पाप के उदय से प्राणियों को दुर्गति मिलती है और पुण्य के उदय से सुगति प्राप्त होती है और ये पुण्य-पाप, धूप-छाँव की तरह बदलते ही रहते हैं, इसलिए जाति का गर्व करना व्यर्थ है।
हरिवंश कथा से नरक-निगोद का कारण है। शास्त्रों में कहा है कि यह मनरूपी मदोन्मत्त हाथी ज्ञानरूपी अंकुश से रोके जाने पर भी बड़े-बड़े विद्वानों तक को कुमार्ग में गिरा देता है तो जो साधारण ज्ञानहीन हैं, जिनके पास ज्ञान और वैराग्य के बल का अंकुश नहीं है, उनकी दुर्दशा की क्या कथा करें?
जब क्रोध किसी के प्रति लम्बे काल तक बना रहता है तो वही क्रोध बैर के रूप में भव-भव में दुःख का कारण बनता है। बैर की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि 'बैर क्रोध का ही अचार या मुरब्बा है।'
इस संसार में व्यक्ति बहुरूपिया के समान रूप बदलते रहते हैं - स्वामी सेवक हो जाता है, सेवक स्वामी हो जाता है, पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र पिता हो जाता है, माता स्त्री हो जाती है, स्त्री माता हो जाती है। इसमें भ्रमण करने वाले जीव निरन्तर ऊँच-नीच अवस्था को प्राप्त होते ही रहते हैं।
-- जब व्यक्ति के बुरे दिन आते हैं, तब बुद्धि वैसी ही विपरीत हो जाती है और चेष्टाएँ भी वैसी ही करने लगता है और बाह्य कारण भी तदनुकूल मिल ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में ज्ञानियों को समता के सिवाय अन्य कुछ भी शरण नहीं है।
अपने द्वारा जाने-अनजाने में हुए अपराधों की क्षमायाचना करके और दूसरों को क्षमादान देकर सब पाप का हिसाब यहीं चुकता कर देना चाहिए। क्षमावाणी पर्व के भी इसी कारण गीत गाये जाते हैं और प्रतिवर्ष जोर-शोर से मनाया जाता है; फिर भी यदि कोई क्रोध की गाँठ बाँध कर रखे तो उससे बड़ा मूर्ख दुनिया में दूसरा कोई नहीं होगा। सचमुच ऐसे बैरभाव को पुनः पुनः धिक्कार है।
ये इन्द्रियों के विषयसुख यद्यपि वर्तमान में सुखद लगते हैं, किन्तु वस्तुतः ये अविचारित रम्य हैं, विचार करने पर तो स्पष्ट समझ में आता है कि जो इन्द्रिय सुख आदि में, मध्य में और अन्त में आकुलता ही उत्पन्न करते हैं, बाधा सहित हैं, क्षणिक हैं, पापबन्ध के कारण हैं, इन्हें कोई भी समझदार सुखद नहीं कह सकता।
यदि हम चाहते हैं कि ये कुगति की कारणभूत मानादि कषायें हमें न हों तो हम सर्वप्रथम स्व-पर का भेदज्ञान करके परपदार्थों में एकत्व-ममत्वभाव छोड़ें और पुण्य-पापों के फलों में प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों की क्षणभंगुरता का विवेक जाग्रत करें।
जो ज्ञानीजन इस निरंकुश मन को आत्मज्ञान और वैराग्य से वश में कर लेते हैं, वे ज्ञानी धन्य हैं।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं परिग्रह संग्रह रूप पाँचों पापों से हमारी कुगति तो होती है है, दूसरों के प्राण भी पीड़ित होते हैं अतः इनसे हमें सदैव संकल्पपूर्वक बचना चाहिए।
जहाँ स्वस्त्री के प्रति अति आसक्ति होने को भी पापबन्ध का कारण होने से त्याज्य कहा हो, वहाँ परस्त्री के प्रति होनेवाली आसक्ति के पापबन्ध की तो बात ही क्या कहें? उसके विषय में तो सोचना भी महापाप है,
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तप दो प्रकार के हैं - एक । अन्तरंग तप और दूसरा - बहिरंग तप ।