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________________ यदिचूक गये तो हरिवंश कथा से अनशन, उनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शैया और आसन तथा कायक्लेश। - ये बहिरंग तप हैं। आत्मा की पवित्रता के लिए ये भी यथाशक्ति करना ही चाहिए। प्रायश्चित, विनय, वैयाव्रत, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान - ये अन्तरंग तप हैं। जो आत्मा के निर्मल परिणामों और विषय-कषायों की मन्दता में होते हैं। -- जिसे यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रकट हो चुका है, आत्मानुभूति हो गई है, उसे ही ज्ञानी कहते हैं। ऐसा ज्ञानी जीव जब अपने में देशचारित्र स्वरूप आत्मशुद्धि प्रकट करता है, तब वह व्रती श्रावक कहलाता है। -- जो आत्मशुद्धि प्रकट हुई, उसे निश्चयव्रत कहते हैं और उक्त आत्मशुद्धि के सद्भाव में जो हिंसादि पंच पापों के त्याग तथा अहिंसादि पंचाणुव्रत धारण करते हैं, उन्हें व्यवहार व्रत कहते हैं। इसप्रकार के शुभभाव ज्ञानी श्रावक के सहजरूप में प्रकट होते हैं। उत्पन्न होना ही निश्चय से अहिंसा है। राग-द्वेषादि भाव न करके, योग्यतम आचरण करते हुए सावधानी रखने पर भी यदि किसी जीव का घात हो जाये, तो वह हिंसा नहीं है। सारांश यह है कि हिंसा और अहिंसा का निर्णय प्राणी के मरने या न मरने से नहीं, रागादि भावों की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति से है। __ केवल निर्दय परिणाम ही हेतु हैं जिसमें ऐसे संकल्प (इरादा) पूर्वक किया गया प्राणघात ही संकल्पी हिंसा है। ___ व्यापारादि कार्यों में तथा गृहस्थी के आरंभादि कार्यों में सावधानी वर्तते हुए भी जो हिंसा हो जाती है, वह उद्योगी और आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन आदि पर किए गये आक्रमण से रक्षा के लिये अनिच्छापूर्वक की गई हिंसा विरोधी हिंसा है। । व्रती श्रावक उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा का तो सर्वथा त्यागी होता है। अर्थात् सहजरूप से उसके इसप्रकार के भाव ही उत्पन्न नहीं होते हैं। अन्य तीनों प्रकार की हिंसा से भी यथासाध्य बचने का प्रयत्न रखता है। २. सत्याणुव्रत - प्रमाद के योग से असत् वचन बोलना असत्य है, इसका एकदेश त्याग ही सत्याणुव्रत है। ३. अचौर्याणुव्रत - जिस वस्तु में लेने-देने का व्यवहार है, ऐसी वस्तु को प्रमाद के योग से उसके स्वामी की अनुमति बिना ग्रहण करना चोरी है। ऐसी चोरी का त्याग अचौर्यव्रत हैं। चोरी का त्यागी होने पर भी गृहस्थ कूप, नदी आदि से जल एवं खान से मिट्टी आदि वस्तुओं को बिना पूछे भी ग्रहण कर लेता है। एकदेश चोरी का त्यागी होने से यह अचौर्याणुव्रत कहलाता है। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत - जो गृहस्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत धारण करने में असमर्थ हैं, वे स्वस्त्री में संतोष करते हैं और परस्त्री-रमण के भाव को सर्वथा त्याग देते हैं, उनका यह व्रत एकदेशरूप होने से ब्रह्मचर्याणुव्रत ये व्रत बारह प्रकार के होते हैं। उनमें हिंसादि पाँच पापों के एकदेश (आंशिक) त्यागरूप पाँच अणुव्रत होते हैं। इन अणुव्रतों के रक्षण और अभिवृद्धिरूप तीन गुणव्रत तथा महाव्रतों के अभ्यासरूप चार शिक्षाव्रत होते हैं। १. अहिंसाणुव्रत - हिंसाभाव के स्थूलरूप में त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। इसे समझने के लिए पहिले हिंसा को समझना आवश्यक है। कषायभाव के उत्पन्न होने पर आत्मा के उपयोग की शुद्धता (शुद्धोपयोग) का घात होना भावहिंसा है और उक्त कषायभाव निमित्त है जिसमें ऐसे अपने और पराये द्रव्यप्राणों का घात होना द्रव्यहिंसा है। आत्मा में रागादि दोषों का उत्पन्न होना भावहिंसा है तथा उनका
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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