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________________ ४२ -- जब होनहार भली है, तब मार्ग में आने वाली विपत्तियाँ स्वतः सम्पत्तियों में बदल जाती हैं। जिस तरह गुलाब में जहाँ फूल होते हैं, वहाँ काँटे भी होते हैं, ठीक इसीतरह जरासंघ जैसे व्यक्तियों में जहाँ अच्छाइयाँ होती हैं, वहीं कुछ कमियाँ भी होती हैं। ऐसे व्यक्ति अहंकारी बहुत होते हैं, इसकारण दूसरों की अपरिमित शक्ति को स्वीकार ही नहीं कर पाते। यदि चूक गये तो नारायण कृष्ण के पुण्य का प्रताप और बलभद्र बलराम का पौरुष बालकपन से ही जगजाहिर था; इन्द्रों के आसन को कम्पित कर देने वाले तीर्थंकर नेमिनाथ का प्रभुत्व तीनों लोकों में प्रगट हो चुका था; फिर भी जरासंध अपने अहंकार में इतना चकचूर था कि उसका सारा विवेक कुंठित हो गया था। जिस तीर्थंकर की सेवा में समस्त लोकपाल तत्पर रहते हों, उस तीर्थंकर के कुल का कौन अहित कर सकता है? फिर भी अज्ञानी क्रोधावेश में अपनी कमजोरी और दूसरों के अपरिमित शक्ति को पहचान नहीं पाता । -- जब जो होना होता है, तब वही होता है और तदनुसार सभी कारण भी सहज सुलभ हो जाते हैं। अर्थात् स्वभाव पुरुषार्थ होनहारकाललब्धि और निमित्त - पाँचों समवाय सहज ही मिल जाते हैं। जिन निमित्त कारणों की हम कल्पना भी नहीं कर सकते, वे भी अचानक आकाश से उतर आते हैं। -- -- -- नारी के लिए तो जैसा पति का पवित्र प्रेम वैसा ही भाई का पवित्र प्रेम | वह बेचारी जब कभी-कभी दो पाटों के बीच में पिसने जैसी स्थिति में आ जाती है तो उसका तो दोनों ओर से दुःखी होना स्वाभाविक ही है। -- इस संसार में प्राणियों को सुख-दुःख देने वाले संयोग-वियोग तो होते (२२) ४३ ही रहते हैं; परन्तु जो तत्त्वज्ञान के आलम्बन से कर्मों के शुभाशुभ क्षणिक फलों की स्थिति को जानते हैं एवं वस्तुस्वरूप की श्रद्धा रखते हैं, वे ऐसी स्थिति में परिस्थिति का विचार कर तत्त्वज्ञान को ही बारम्बार स्मरण करके अपनी मनः स्थिति पर काबू करके धैर्य रखते हैं। यही तो तत्त्वज्ञान का लाभ है, अन्यथा कोरा शास्त्र ज्ञान तो बोझा ही है। समोशरण का यह भी एक अतिशय है कि तीर्थंकर द्वारा किसी के प्रश्नों के सीधे उत्तर दिए बिना ही शंकाकार की शंकाओं का पूरा समाधान सहज ही स्वतः हो जाता है। समोशरण में उपस्थित श्रोताओं के मन में जो भी छोटी-मोटी शंकायें होती हैं, उन सबका समाधान बिना उत्तर दिये अपने आप होता है। -- देखो, धन, जाति, कुल और शास्त्रीय ज्ञान का गर्व करना कुगति का कारण है। पर्याय पलटते ही न जाति का कोई ठिकाना रहता है, न कुल का। पापकर्म के फल में क्षण में राजा रंक हो जाता है, रुग्ण होकर दुःखी हो जाता है, संक्लेश परिणामों से मरण कर नरकों में भी चला जाता है और पशु भी अकाम निर्जरा करके मनुष्यगति और देवगति प्राप्त कर लेता है। पुराणों में तो ऐसे अनेक उदाहरण मिलते ही हैं, हम अपने जीवन में भी दिन-रात ऐसी घटनायें देखते-सुनते रहते हैं। द्रव्यदृष्टि से तो हम सभी अनन्त गुणों के घनपिण्ड और अनन्तशक्तियों के पुंज हैं ही, कोई भी किसी से कम नहीं है, अतः अहंकार करने की बात ही नहीं बनती और पर्यायदृष्टि में जो अन्तर दिखाई देता है, वह भी बादल और बिजली की भाँति क्षण भंगुर है, उस क्षणिक अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में भी हर्ष - विषाद करना निरर्थक ही है।
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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