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________________ यदि चूक गये तो जैनपुराणों में प्रतिपादित विश्वव्यवस्था छहद्रव्यों के रूप में अनादिअनंत एवं स्व-संचालित है। इस विश्व को किसी ने बनाया नहीं है। यह कभी नष्ट भी नहीं होता। मात्र इन द्रव्यों की अवस्थायें बदलती हैं, इसप्रकार द्रव्य-उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक है। द्रव्य जाति की अपेक्षा ६ हैं और संख्या की अपेक्षा देखें तो जीवद्रव्य अनन्त हैं, पुद्गलद्रव्य अनन्तानंत है, धर्म, द्रव्य, अधर्म द्रव्य एवं आकाशद्रव्य एक-एक हैं और कालद्रव्य असंख्यात है। इनमें जीव चेतन है, शेष पाँच अचेतन हैं । पुद्गल मूर्तिक है, शेष पाँच अमूर्तिक हैं। काल एक प्रदेशी हैं, शेष पाँच बहु प्रदेशी हैं, इन पाँचों को बहुप्रदेशी होने से अस्तिकाय भी कहते हैं। इनके कर्ता-कर्म-करण-सम्प्रदानअपादान और अधिकरण के रूप में स्वतंत्र परिणमन होता है, इस परिणमन को ही पर्याय, हालत, दशा या अवस्था कहते हैं। ३२ -- -- यह असार संसार अनेक दुःखों से भरा है। इन सबमें मात्र मनुष्यपर्याय ही मोक्ष का साधक होने से सारभूत है; परन्तु यह अत्यन्त दुर्लभ है, जो हमें इस समय हमारे सद्भाग्य से सहज में उपलब्ध हो गई है; अतः बुद्धिमान व्यक्तियों को संसार की इस दुःखद स्थिति को जानकर इससे विरक्त होकर मुक्ति की साधना कर इस मानव जन्म को सार्थक कर लेना चाहिए। -- जिस लौकिक आजीविका के लिए भौतिक सुविधा के लिए हमें एक क्षण बर्बाद करने की जरूरत नहीं है; क्योंकि वह सब तो पूर्वोपार्जित पुण्यानुसार हाथी को मन और चींटी को कण मिलता ही है। उसमें तो हम दिन-रात लगे रहते हैं, २४ घंटे भी कम पड़ते हैं और जिस मुक्ति की साधना लिए अपूर्व पुरुषार्थ करने और समय देने की जरूरत है, उसके लिए हमें समय देने की जरूरत है, उसके लिए हम समय नहीं दे पा रहे हैं; अतः अपनी दिशा को बदलना चाहिए। दिशा बदलने से ही दशा बदलेगी। (१७) हरिवंश कथा से ३३ पुण्यवान और परोपकारी पुरुष जहाँ भी जाते हैं, वहीं उन्हें समस्त प्रकार से अनुकूलता प्राप्त होती है। दो हाथ यदि उन्हें धक्का देते हैं, गिराते हैं तो हजार हाथ उन्हें झेलने को तैयार मिलते हैं। अनुकूलता में हर्ष नहीं और प्रतिकूलता में विषाद नहीं, हमें सभी में साम्यभाव रखना चाहिए। यद्यपि ज्ञानी संत लौकिक ऋद्धि-सिद्धि के लिए तप नहीं करते, फिर भी तप के फल में ऋद्धियाँ सिद्धियाँ भी मिलती ही हैं। अर्थात् न चाहते हुए उन्हें ऋद्धियाँ प्रगट होती हैं, परन्तु वे उनका उपयोग लौकिक कार्यों के लिए नहीं करते। -- जलती हुई अग्नि कितनी ही उग्र-ज्वलन्त क्यों न हो, जल के द्वारा तो शान्त हो ही जाती है न! यदि जल से अग्नि भभकने लगे तो अग्नि को बुझाने का अन्य क्या उपाय बाकी बचेगा? इसी तरह विषयानि कितनी भी उग्र हो, परन्तु वह ज्ञान जल से बुझती ही है। सात मुनियों की रक्षा में अपनी विक्रिया ऋद्धि का उपयोग करके अपनी की गई घोर तपस्या को तिलांजलि मुनि देनेवाले विष्णुकुमार के धर्मवात्सल्य से, अंकपनाचार्य की निश्चलता तथा श्रुतसागर के प्रायश्चित के आदर्श से जो व्यक्ति अपने परिणामों को निर्मल करते हैं, वे सातिशय पुण्य के साथ परम्परा मुक्ति को भी प्राप्त करते हैं। -- जो व्यक्ति पापरूपी कुएँ में और दुःखद संसार सागर में डूबे हुए मनुष्यों के लिए धर्मरूपी हाथ का सहारा देता है, उसके समान संसार में परोपकारी और कौन हो सकता है? सचमुच यह ही परम उपकार है। ऐसा ही उपकार तीर्थंकर और गणधरदेव भी करते हैं। -- लोक में एक अक्षर, आधे पद अथवा एक पद का ज्ञानदान देनेवाले गुरू को जो भूल जाता है, जब वह भी कृतघ्न है, पापी है तो धर्मोपदेश के
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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