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________________ यदिचूक गये तो यह रत्नत्रय धर्म वस्तुस्वभाव की समझपूर्वक ही होता है। जब तक छह द्रव्य के स्वतंत्र परिणमन का यथार्थ ज्ञान एवं सात तत्त्वों या नौ पदार्थों की यथार्थ जानकारी और सही श्रद्धा नहीं होती तब तक वीतराग चारित्ररूप यथार्थ धर्म प्रगट नहीं होता । संयम एवं तप की सार्थकता भी सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होती है। हरिवंश कथा से करने के लिए अष्ट मूलगुणों का पालन, सात व्यसनों का त्याग और सच्चे वीतरागीदेव, निर्ग्रन्थ गुरू तथा स्याद्वादमयी वाणी (जिनवाणी) रूप सच्चेशास्त्र और पठन-पाठन अति आवश्यक है। इन साधनों के बिना निजस्वभाव में स्थिरतारूप मुनिधर्म की साधना तथा रत्नत्रय धर्म का प्राप्त होना कठिन ही नहीं असंभव है। साधना और आराधना की दृष्टि से धर्म-साधना को दो वर्गों में बाँटा गया है - एक मुनिधर्म तथा दूसरा गृहस्थ धर्म। गृहस्थ धर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदय का कारण है और परम्परा से मुक्ति का कारण है तथा मुनिधर्म मुक्ति का साक्षात् कारण है। वस्तुतः मुक्ति तो मुनिधर्म की साधना से ही होती है। मुनि हुए बिना तो तीनकाल में कभी भी मोक्ष की प्राप्ति संभव ही नहीं है। अरहन्तपद प्राप्त करने की प्रक्रिया ही यह है कि “जो गृहस्थपना छोड़कर मुनिधर्म अंगीकार कर निज स्वभाव साधन द्वारा चार घातिया कर्मों का अभाव होने पर अनन्त चतुष्टयरूप विराजमान हुए वे अरहन्त हैं।" अरहंत की इस परिभाषा में मुनिधर्म और उसमें भी निज स्वभाव की साधना ही मुख्य है। गृहस्थधर्म तो मात्र एक तात्कालिक समझौता है। जबतक पूर्णरूप से पापों को छोड़ने और निजस्वरूप में स्थिर होने की सामर्थ्य प्रगट नहीं होती तब तक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रतों का एकदेश पालन करते हुए मुनिधर्म को धारण करने की सामर्थ्य (योग्यता) प्रगट करने का प्रयत्न ही गृहस्थ धर्म है। जैसे ही कषाय के तीन चौकड़ीजन्य सम्पूर्ण पापप्रवृत्ति छूट जाती हैं, त्यों ही जीवन में मुनिधर्म आ जाता है। फिर मुनि होने से कोई नहीं रोक सकता। वैसे तो गृहस्थ धर्म का प्रारंभ - सम्यग्दर्शनरूप मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी से ही होता है; किन्तु उसके भी पहले सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त प्रारंभ में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु सच्चेदेव-गुरु-शास्त्र के माध्यम से छह द्रव्यों के स्वतंत्रपने का, सात-तत्त्व की हेयोपादेयता का, नौ पदार्थ का एवं स्व-परभेद विज्ञान का ज्ञान तथा परपदार्थों में अनादिकालीन हो रहे एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व की मिथ्या-मान्यता का त्याग भी अनिवार्य है। यह सब तो सम्यग्दर्शन की पूर्व भूमिका में ही होता है - ऐसी पात्रता बिना आत्मानुभूति रूप सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता; अतः मनुष्य जन्म की सफलता के लिए हमें ऐसी पात्रता तो प्राप्त करना ही है। देखो, जो प्राणी मोह के वश होकर संसारचक्र में फँसे रहते हैं। कर्मकलंक से कलंकित ऐसे अनंत जीव हैं, जिन्होंने आज तक त्रस पर्याय प्राप्त ही नहीं की। वे प्राणी चौरासी लाख कुयोनियों में तथा अनेक कुल कोटियों में निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं। कदाचित् हम भी यह अवसर चूक गये तो चौरासी लाख योनियों में न जाने कहाँ जा पड़ेंगे? फिर अनन्तकाल तक यह स्वर्ण अवसर नहीं मिलेगा। संसार के सभी प्राणी कर्मोदय के वशीभूत हो स्थावर तथा त्रस पर्यायों में असंज्ञी (मन रहित) होकर जन्म-मरण के असह्य दुःख सागरों पर्यंत भोगते हैं। यदि इन दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो एक वीतराग धर्म की आराधना करो। (१६)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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