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यदि चूक गये तो
हरिवंश कथा से अर्थ प्रचारित करके हिंसा की परम्परा को तो प्रश्रय दिया ही, झूठ भी बोला और पर्वत का पक्ष लेकर हिंसा एवं झूठ को बढ़ावा देकर मन ही मन आनन्दित हुआ। परिणामस्वरूप सातवें नरक गया।
कोई भी संसारी संज्ञी प्राणी ध्यान के बिना तो रहता नहीं है और मिथ्यात्व की भूमिका में धर्मध्यान किसी को होता नहीं है, इसकारण उनको या तो आर्तध्यान होता रहता है या रौद्रध्यान । आर्तध्यान दुःखरूप ही होता है। इसके मुख्यतः चार भेद हैं - १. इष्ट वियोगज, २. अनिष्ट संयोगज, ३. पीड़ा चिन्तन और ४. निदान।
जगत में जो वस्तु या व्यक्ति सुखदायक प्रतीत होता है, वह इष्ट लगता है, प्रिय लगता है, भला लगता है और जो दुःखदायक प्रतीत होता है, वह अनिष्ट लगता है, बुरा लगता है, अप्रिय लगता है। जो इष्ट लगता है उसके वियोग में दुःखी होना - यह इष्ट वियोगज आर्तध्यान है। जो अनिष्ट लगता है, उसके संयोग में दुःखी होना - यह अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान है।
पीड़ा दो तरह से होती है - एक मानसिक, दूसरी शारीरिक । मोह और असाता कर्मों के उदयानुसार दोनों तरह की पीड़ायें होती हैं, उसमें दुःखी रहना पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान है तथा थोड़ा-बहुत बाह्य धर्माचरण करके उसके फल में लौकिक विषयों की कामना होना निदान आर्तध्यान है - अज्ञानी जीव चौबीसों घंटे इसी में उलझा रहता है और इसके परिणाम स्वरूप उसे तिर्यंचगति की प्राप्ति होती है।
यदि हमें पशु पर्याय पसंद न हो, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में जन्ममरण करना और अनन्त दुःख भोगना पसंद न हो तो तत्त्वज्ञान के अभ्यास से परपदार्थों में इष्टानिष्ट की मिथ्या कल्पना का त्याग आवश्यक है; अन्यथा हम इस आर्तध्यान से नहीं बच सकेंगे।
रौद्रध्यान मुख्यतः मिथ्यात्व की भूमिका में होता है - वह रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है। १. हिंसानन्दी, २. मृषानन्दी, ३. चौर्यानन्दी, ४. परिग्रहानन्दी। यह रौद्रध्यान आनन्दरूप होता है। इसके फल में जीव नरक में जाता है। जैसे कि राजा वसु ने मोहवश 'अज' शब्द का मिथ्या
यह तो सभी जानते हैं कि द्रव्य हिंसा करना किसी के वश की बात नहीं है; क्योंकि कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं समयसार के बन्ध अधिकार में लिखते हैं - "आयु क्षय से मरण हो, यह बात जिनवर ने कही। हम आयु हर सकते नहीं, तो मरण हमने कैसे किया।” अतः यदि प्रमाद एवं कषायवश हमने मारने या बचाने का अशुभ या शुभभाव किया तो हमें तो उन्हीं भावों का फल प्राप्त होता है। अज्ञानी जीव दिन-रात राग-द्वेष और मोहवश मारने/बचाने के अशुभ-शुभभावों से पाप-पुण्य बाँधता ही रहता है। फलस्वरूप कभी नरक तो कभी स्वर्ग के दुःख-सुख भोगता रहता है। यदि संसार में जन्म-मरण के दुःख नहीं भोगना हो तो इस हिंसानन्दी-रौद्रध्यान से बचें। रौद्रध्यान तो अशुभ ही होता है, जिसका फल नरक है।
जीवों पर दया करना व्यवहार से अहिंसाधर्म है। निरन्तर हिंसा के त्यागरूप ऐसा धर्म का पालन करना और अपने प्राण जाने पर भी जीववध से दूर रहना हिंसा का त्याग है, यही व्यवहार से अहिंसा धर्म है। आदरपूर्वक आचरण किया हुआ यह धर्म मोह को भेदकर साक्षात् स्वर्ग और परम्परा मोक्ष के उत्तम सुख में पहुँचा देता है।
तीनों लोकों में त्रिवर्ग (अर्थ, काम एवं मोक्ष) की प्राप्ति धर्म से ही होती है। इसलिए त्रिवर्ग के इच्छुक प्राणियों को धर्म की साधना/आराधना एवं उपलब्धि करना चाहिए। धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल स्वरूप है। सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञान सहित अहिंसा, संयम, तप-त्याग आदि वीतराग धर्म के आधार हैं। वह वीतराग धर्म ही जीवों को उत्तम शरण भूत है; क्योंकि वह वस्तु का स्वभाव रूप धर्म ही जीवों को उत्तम सुख की प्राप्ति कराता है। इस धर्म से ही वीतरागता और सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है।