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________________ हरिवंश कथा से यदिचूक गये तो दाता को भूल जाने वाले कृतघ्नियों का तो कहना ही क्या है? नीति कहती है कि - "नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति - किए हुए उपकार को सज्जन कभी भूलते नहीं है।" उपकारी व्यक्ति की कृत-कृत्यता प्रत्युपकार से ही होती है। जिनधर्म उपासक मोक्षप्राप्त तो करता ही है; किन्तु जब तक अपने सम्यक् पुरुषार्थ की अपूर्णता के कारण मुक्ति का लाभ नहीं ले पाता, तब तक संसार में भी वीतराग धर्म की आराधना से प्राप्त पुण्य के प्रताप से लौकिक अनुकूलतायें एवं मनोवांछित कामों में सफलता प्राप्त करता है। अपना उपकार करने वाले व्यक्ति का अवसर आने पर प्रत्युपकार किया जावे। कदाचित् उपकार करने की सामर्थ्य न हो तो उपकारी के प्रति विनम्र व्यवहार के साथ कृतज्ञता ज्ञापन तो करना ही चाहिए। -- धर्मात्मा मनुष्य भले ही पूर्वक्षणिक पापोदय के कारण कुछ काल के लिए निर्धन हो गया हो, समुद्र में गिर गया हो, कुएँ में भी पड़ गया हो, किसी भी कठिनाई में पड़ गया हो - तो भी पापक्षीण होने पर धर्म के प्रभाव से पुनः सर्वप्रकार से सम्पूर्ण सुःख के साधनों से सम्पन्न हो जाता है। अतः जिनेन्द्र द्वारा निरूपित धर्म चिन्तामणि सतत् संचय करो। -- संसारीजीवों के सब दिन एक जैसे नहीं बीतते-पुण्योदय कब पापोदय में पलट जाये, कोई नहीं कह सकता। किसी कवि ने कहा भी है - "सबै दिन जात न एक समान" अतः मानव को अनुकूलता के समय आत्महित में प्रवृत्त रहना योग्य है। धर्म आराधना, आत्मसाधना करने योग्य है। -- जो व्यक्ति चार अनुयोगों के स्वरूप को समझकर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समताभाव रखता है। उसे कषाय की मन्दता से विशेष पुण्यार्जन होता है, फलस्वरूप लौकिक सुख सामग्री स्वतः ही उसके चरणों में आ पड़ती है। अतः जब तक आत्म सन्मुखता का पूर्ण पुरुषार्थ संभव न हो तब तक तत्त्व के आश्रय और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के अवलम्बन से अपने परिणामों को संक्लेश रहित निर्मल रखना चाहिये। पुण्यात्मा कहीं भी जाए, यदि उसे एक मारता है तो दूसरा बचानेवाला भी मिल ही जाता है, अतः अपने को सदैव पुण्य कार्य तो करते ही रहना चाहिए और पापों से सदैव दूर रहना चाहिए। एतदर्थ आत्मा-परमात्मा का ध्यान ही एकमात्र वह उपाय है, जिससे जीव लोक/परलोक में सुखी रह सकता है। -- ये बन्धु-बान्धवों के सम्बन्ध और ये भोग सम्पदायें दुःखदायक ही हैं तथा यह सुन्दर कान्तियुक्त शरीर का मोह भी दुःखद ही है, फिर भी मूर्खप्राणी इसके राग-रंग में उलझे हुए हैं, इन्हें सुखद मान बैठे हैं। जीव अकेला ही पुण्य-पाप करता है, अकेला ही सुख-दुःख भोगता है। अकेला ही पैदा होता है और मरता है, फिर भी आत्मीयजनों के राग में अटका रहता है, जो आत्महित में लग गये हैं, जो भोगों को त्यागकर मोक्षमार्ग में अग्रसर हो गये हैं, वे ही धीर-वीर मनुष्य सुखी हैं। -- जिस व्यक्ति ने सत्कर्म करके पुण्यार्जन किया है, उसके ही लौकिकपारलौकिक मनोरथपूर्ण होते हैं। अतः जिनशासन के अनुसार सभी को सदाचारी जीवन जीते हुए वीतराग धर्म की आराधना करना ही चाहिए। -- यद्यपि देवगति में संयम धारण नहीं कर सकते; फिर भी वस्तुस्वरूप का अवलम्बन लेकर पुण्य-पाप की विचित्रता जानकर और रागद्वेष के कारण (१८)
SR No.008389
Book TitleYadi Chuk Gaye To
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Prasad Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages85
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size276 KB
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