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________________ सिद्ध पूजन वीतराग-विज्ञान भाग -३ अक्षत सचमुच तुम अक्षत हो प्रभुवर, तुम ही अखण्ड अविनाशी हो। तुम निराकार अविचल निर्मल, स्वाधीन सफल संन्यासी हो।। ले शालिकणों का अवलम्बन, अक्षयपद | तुमको अपनाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. । पुष्प जो शत्रु जगत का प्रबल काम, तुमने प्रभुवर उसको जीता। हो हार जगत के वैरी की, क्यों नहिं आनन्द बढ़े सब का।। प्रमुदित मन विकसित सुमन नाथ, मनसिज' को ठुकराने आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. । धूप मेरा स्वभाव चेतनमय है, इसमें जड़ की कुछ गंध नहीं। मैं हूँ अखण्ड चिपिण्ड चण्ड', पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं। यह धूप नहीं, जड़-कर्मों की रज, आज उड़ाने में आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.। फल नैवेद्य मैं समझ रहा था अबतक प्रभु, भोजन से जीवन चलता है। भोजन बिन नरकों में जीवन, भरपेट मनुज क्यों मरता है। तुम भोजन बिन अक्षय सुखमय, यह समझ त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. । दीप आलोक' ज्ञान का कारण है, इन्द्रिय से ज्ञान उपजता है। यह मान रहा था, पर क्यों कर, जड़ चेतन सर्जन करता है।। मेरा स्वभाव है ज्ञानमयी, यह भेदज्ञान पा हरषाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. । १. कामदेव २. प्रकाश ३. उत्पन्न करना। कुछ मत वाले प्रकाश को ज्ञान का कारण और इन्द्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं; पर प्रकाश और इन्द्रियाँ अचेतन हैं, उनसे चेतन ज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? शुभ कर्मों का फल विषय-भोग, भोगों में मानस रमा रहा। नित नई लालसायें जागी, तन्मय हो उनमें समा रहा ।। रागादि विभाव किए जितने, आकुलता उनका फल पाया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. । अर्घ्य जल पिया और चन्दन चरचा, मालायें सुरभित सुमनों की । पहनी तन्दुल सेये व्यंजन, दीपावलियाँ की रत्नों की ।। सुरभि धूपायन की फैली, शुभकर्मों का सब फल पाया। आकुलता फिर भी बनी रही, क्या कारण जान नहीं पाया।। जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुम पर, मुझको स्वभाव का भान हुआ। सुख नहीं विषय-भोगों में है, तुमको लख यह सद्ज्ञान हुआ।। जल से फल तक का वैभव यह, मैं आज त्यागने हूँ आया। होकर निराश सब जग भर से, अब सिद्ध शरण में मैं आया।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । १. तेजस्वी २. सुगन्ध
SR No.008388
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size131 KB
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