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सात तत्त्वों संबंधी भूल जीवादि सात तत्त्वों को सही रूप में समझे बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अनादिकाल से जीवों को इनके संबंध में भ्रान्ति रही है। यहाँ पर संक्षिप्त में उन भूलों को स्पष्ट किया जाता है। जीव और अजीवतत्त्व संबंधी भूल ____ जीव का स्वभाव तो जानने-देखनेरूप ज्ञान-दर्शनमय है और पुद्गल से बने हुए शरीरादि - वर्ण, गंध, रस और स्पर्शवाले होने से मूर्तिक हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाशद्रव्य के अमूर्तिक होने पर भी जीव की परिणति इन सबसे जुदी है, किन्तु फिर भी यह आत्मा इस भेद को न पहिचान कर शरीरादि की परिणति को आत्मा की परिणति मान लेता है।
अपने ज्ञानस्वभाव को भूलकर शरीर की सुन्दरता से अपने को सुन्दर और कुरूपता से कुरूप मान लेता है तथा उसके संबंध से होनेवाले पुत्रादिक में भी आत्मबुद्धि करता है। शरीराश्रित उपवासादि और उपदेशादि क्रियाओं में भी अपनापन अनुभव करता है।
शरीर की उत्पत्ति से अपनी उत्पत्ति मानता है और शरीर के बिछुड़ने पर अपना मरण मानता है। यही इसकी जीव और अजीव तत्त्व के संबंध में भूल है।
जीव को अजीव मानना जीव तत्त्व संबंधी भूल है और अजीव को जीव मानना अजीव तत्त्व संबंधी भूल है। आस्रवतत्त्व संबंधी भूल
राग-द्वेष-मोह आदि विकारी भाव प्रकट में दुःख को देनेवाले हैं, पर यह जीव इन्हीं का सेवन करता हुआ अपने को सुखी मानता है। कहता है कि शुभराग तो सुखकर है, उससे तो पुण्य बन्ध होगा, स्वर्गादिक सुख मिलेगा; पर यह नहीं सोचता कि जो बन्ध का कारण है, वह सुख का कारण कैसे होगा तथा पहली ढाल में तो साफ ही बताया है कि स्वर्ग में सुख है कहाँ ? जब संसार में सुख है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से? अतः जो
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शुभाशुभ राग प्रकट दु:ख का देनेवाला है, उसे सुखकर मानना ही आस्रवतत्त्व संबंधी भूल है। बन्धतत्त्व संबंधी भूल
यह जीव शुभ कर्मों के फल में राग करता है और अशुभ कर्मों के फल में द्वेष करता है, जबकि शुभ कर्मों का फल है भोग-सामग्री की प्राप्ति और भोग दु:खमय ही हैं, सुखमय नहीं। अत: शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म वास्तव में संसार का कारण होने से हानिकारक हैं और मोक्ष तो शुभ-अशुभ बंध के नाश से ही होता है - यह नहीं जानता है, यही इसकी बंधतत्त्व संबंधी भूल है। संवरतत्त्व संबंधी भूल
आत्मज्ञान और आत्मज्ञान सहित वैराग्य संवर है और वे ही आत्मा को सुखी करनेवाले हैं, उन्हें कष्टदायी मानता है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति और वैराग्य की प्राप्ति कष्टदायक है- ऐसा मानता है। यह उसे पता ही नहीं कि ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति आनंदमय होती है, कष्टमयी नहीं।
उन्हें कष्ट देनेवाला मानना ही संवरतत्त्व संबंधी भूल है। निर्जरातत्त्व संबंधी भूल
आत्मज्ञानपूर्वक इच्छाओं का अभाव ही निर्जरा है और वही आनंदमय है। उसे न जानकर एवं आत्मशक्ति को भूलकर इच्छाओं की पूर्ति में ही सुख मानता है और इच्छाओं के अभाव को सुख नहीं मानता है, यही इसकी निर्जरातत्त्व संबंधी भूल है। मोक्षतत्त्व संबंधी भूल
मुक्ति में पूर्ण निराकुलतारूप सच्चा सुख है, उसे तो जानता नहीं और भोग संबंधी सुख को ही सुख मानता है और मुक्ति में भी इसी जाति के सुख की कल्पना करता है, यही इसकी मोक्षतत्त्व संबंधी भूल है।
जबतक इन सातों तत्त्व सम्बन्धी भूलों को न निकाले, तबतक इसको सच्चा सुख प्राप्त करने का मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता है।
आधार चेतन को है उपयोग रूप, चिन्मूरत बिनमूरत अनूप । पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतें न्यारी है जीव चाल ।
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