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पाठ३
सात तत्त्वों संबंधी भूल
के आरम्भ-परिग्रह से सर्वथा रहित होते हैं। विषय-भोगों की लालसा उनमें लेशमात्र भी नहीं होती। ऐसे तपस्वी
साधुओं को गुरु कहते हैं। सुबोध - वे ज्ञानी भी होते होंगे? प्रबोध - क्या बात करते हो, बिना आत्मज्ञान के तो कोई मुनि बन ही
नहीं सकता। सुबोध - तो आत्मज्ञान के बिना यह क्रियाकाण्ड (बाह्याचरण या
व्यवहार चारित्र) सब बेकार है क्या ? प्रबोध - सुनो भाई ! मूल वस्तु तो आत्मा को समझ कर उसमें लीन
होना है। आत्मविश्वास (सम्यग्दर्शन), आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और आत्मलीनता (सम्यक्चारित्र) जिसमें हो तथा जिसका बाह्याचरण भी आगमानुकूल हो, वास्तव में
सच्चा गुरु तो वही है। सुबोध - तो तुम इनकी ही पूजन करने जाते होगे। हम भी चला
करेंगे, पर यह तो बताओ इससे हमें मिलेगा क्या ? प्रबोध - फिर तुमने नासमझी की बात की। पूजा इसलिए की जाती
है कि हम भी उन जैसे बन जावें । वे सब कुछ छोड़ गये,
उनसे संसार का कुछ माँगना कहाँ तक ठीक है? सुबोध - अच्छा ठीक है, कल से हमें भी ले चलना।
प्रश्न १. पूजन किसकी और क्यों करना चाहिए? २. सच्चा देव किसे कहते हैं? ३. शास्त्र किसे कहते हैं ? उसकी सच्चाई का आधार क्या है ? ४. गुरु किसे कहते हैं ? उनकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए। क्या विद्यागुरु गुरु
नहीं हैं? ५. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए -
वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी ६. आचार्य समन्तभद्र के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए ?
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अध्यात्मप्रेमी पण्डित दौलतरामजी (व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व) (विक्रम संवत् १८५५-१९२३) अध्यात्मरस में निमग्न रहनेवाले, उन्नीसवीं सदी के तत्त्वदर्शी विद्वान कविवर पण्डित दौलतरामजी पल्लीवाल जाति के नररत्न थे। आपका जन्म अलीगढ़ के पास सासनी नामक ग्राम में हुआ। बाद में आप कुछ दिन अलीगढ़ भी रहे थे। आपके पिता का नाम टोडरमलजी था।
आत्मश्लाघा से दूर रहनेवाले इन महान कवि का जीवन-परिचय पूर्णतः प्राप्त नहीं है। पर वे एक साधारण गृहस्थ थे एवं सरल स्वभावी, आत्मज्ञानी पुरुष थे।
आपके द्वारा रचित ग्रंथ छहढ़ाला जैन समाज का बहप्रचलित एवं समादृत ग्रन्थरत्न है। शायद ही कोई जैनी भाई हो, जिसने छहढाला का अध्ययन न किया हो। सभी जैन परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रम में इसे स्थान प्राप्त है।
इसकी रचना आपने विक्रम संवत् १८९१ में की थी। आपने इसमें गागर में सागर भरने का सफल प्रयत्न किया है। इसके अलावा आपने कई स्तुतियाँ एवं अध्यात्म-रस से ओतप्रोत अनेक भजन लिखे हैं, जो आज भी सारे भारतवर्ष के मंदिरों और शास्त्र-सभाओं में बोले जाते हैं। आपके भजनों में मात्र भक्ति ही नहीं, गूढ़ तत्त्व भी भरे हुए हैं।
भक्ति और अध्यात्म के साथ ही आपके काव्य में काव्योपादान भी अपने प्रौढ़तम रूप में पाये जाते हैं। भाषा, सरल, सुबोध और प्रवाहमयी है, भर्ती के शब्दों का अभाव है। आपके पद हिन्दी गीत साहित्य के किसी भी महारथी के सम्मुख बड़े ही गर्व के साथ रखे जा सकते हैं।
प्रस्तुत पाठ आपकी प्रसिद्ध रचना छहढाला की दूसरी ढाल पर आधारित है।
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