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जिनेश
अध्यापक
अध्यापक __- एक दिन प्रात:काल वे अपने साथियों के साथ घूमने
जा रहे थे। रास्ते में वे देखते हैं कि उनके नाना साधु वेश में पंचाग्नि तप तप रहे हैं। जलती हुई लकड़ी के बीच एक नाग-नागिनी का जोड़ा था, वह भी जल रहा था। पार्श्वनाथ ने अपने दिव्य ज्ञान (अवधिज्ञान) से यह सब जान लिया और उनको इसप्रकार के काम करने से मना किया, पर जब तक उस लकड़ी को फाड़कर नहीं देख लिया गया तब तक किसी ने उनका विश्वास नहीं किया। लकड़ी
फाड़ते ही उसमें से अधजले नाग-नागिनी निकले। रमेश - हैं, वे जल गये ! यह तो बहुत बुरा हुआ। फिर....? अध्यापक - फिर क्या ? पार्श्वकुमार ने उन नाग-नागिनी को
संबोधित किया और मंद कषाय से मर कर धरणेन्द्र
और पद्मावती हुए। रमेश - अच्छा हुआ, चलो; उनका भव तो सुधर गया। अध्यापक - देव हो गये-इसमें क्या अच्छा हुआ ? अच्छा तो
यह हुआ कि उनकी रुचि सन्मार्ग की ओर हो गई।
इस हृदयविदारक घटना से पार्श्वकुमार का कोमल हृदय वैराग्यमय हो गया और पौष कृष्ण
एकादशी के दिन वे दिगम्बर साधु हो गये। सुरेश - फिर तो उन्होंने घोर तपश्चर्या की होगी ? अध्यापक - हाँ, फिर वे अखण्ड मौन-व्रत धारण कर आत्मसाधना
में लीन हो गये। एक बार वे अहिक्षेत्र के वन में ध्यानस्थ थे। ऊपर से उनका पूर्व-जन्म का वैरी संवर नामक देव जा रहा था। उन्हें देखकर उसका पूर्व-वैर जागृत हो गया और उसने मुनिराज पार्श्वनाथ पर घोर उपसर्ग किया । पानी बरसाया, ओले बरसाये,
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यहाँ तक कि घोर तूफान चलाया और पत्थर तक बरसाये, पर पार्श्वनाथ आत्मसाधना से डिगे नहीं
और उन्हें उसी समय चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। यह देखकर वह देव पछताता हुआ उनके चरणों में लोट गया। - हमने तो सुना था कि उस समय उन धरणेन्द्र-पद्मावती
ने पार्श्वनाथ की रक्षा की थी। - साधारण देव-देवी तीनलोक के नाथ की क्या रक्षा
करेंगे? वे तो अपनी आत्मसाधना द्वारा पूर्ण सुरक्षित थे ही, पर बात यह है कि उस समय धरणेन्द्र और पद्मावती को उनके उपसर्ग को दूर करने का विकल्प अवश्य आ गया था तथा उन्होंने यथाशक्य अपने विकल्प की पूर्ति भी की थी।
उसके बाद वे करीब सत्तर वर्ष तक सारे भारतवर्ष में समवशरण सहित विहार करते रहे एवं दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को तत्त्वोपदेश देते रहे। वे अपने उपदेशों में सदा ही आत्मसाधना पर बल देते रहे। वे कहते कि यह आत्मा ही अनन्तज्ञान
और सुख का भंडार है - इसकी श्रद्धा किये बिना, इसे जाने बिना और इसमें लीन हुए कोई भी कभी सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर सकता है।
लाखों जीवों ने उनके उपदेशों से लाभ लेकर आत्मशान्ति प्राप्त की। महाकवि भूधरदासजी उनके
उपदेशों के प्रभाव का चित्रण करते हुए लिखते हैंकेई मुक्ति जोग बड़भाग,
भये दिगम्बर परिग्रह त्याग । किनही श्रावक व्रत आदरे,
पसु पर्याय अनुव्रत धरे ।।
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