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________________ जय परमशांत मुद्रा समेत । ____ भविजन को निज अनुभूति हेत ।। भवि भागन वचजोगेवशाय । तुम धुनि लै सुनि विभ्रम नशाय ।।३।। पाठ१ देव-स्तुति पण्डित दौलतरामजी तुम गुण चिंतत निज पर विवेक। प्रगटै विघटै आपद अनेक ।। तुम जगभूषण दूषणवियुक्त । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ।।४।। अविरुद्ध, शुद्ध, चेतन-स्वरूप। परमात्म परम पावन अनूप ।। शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन। स्वाभाविक परिणतिमय अछीन ।।५।। दर्शन-स्तुति (दोहा) सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन । सो जिनेंद्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन ।।१।। (पद्धरि छन्द) जय वीतराग विज्ञानपूर। जय मोहतिमिर को हरन सूर ।। जय ज्ञान अनंतानंत धार। दृगसुख वीरजमंडित अपार ।।२।। जिनेन्द्र देव की स्तुति करते हुए पण्डित दौलतरामजी कहते हैं कि - हे जिनेन्द्र देव ! आप समस्त ज्ञेयों (लोकालोक) के ज्ञात होने पर भी अपनी आत्मा के आनन्द में लीन रहते हो । चार घातिया कर्म हैं निमित्त जिनके, ऐसे मोह-राग-द्वेष, अज्ञान आदि विकारों से रहित हो - प्रभो ! आपकी जय हो।।१।। आप मोह-राग-द्वेषरूप अंधकार का नाश करनेवाले वीतरागी सूर्य हो। अनन्त ज्ञान के धारण करनेवाले हो, अतः पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) हो तथा अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से भी सुशोभित हो । हे प्रभो! आपकी जय हो ।।२।। (१) अष्टादश दोष विमुक्त धीर। स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर ।। मुनिगणधरादि सेवत महंत । नव केवल लब्धिरमा धरंत ।।६।। तुम शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जैहैं सदीव ।। भवसागर में दुख छार वारि । तारन को और न आप टारि ।।७।। यह लखि निज दुखगद हरणकाज। तुमही निमित्त कारण इलाज ।। जाने तातैं मैं शरण आय । उचरों निज दुख जो चिर लहाय ।।८।। (२)
SR No.008386
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size76 KB
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