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भव्य जीव आपकी परम शान्तमुद्रा को देखकर अपनी आत्मा की अनुभूति प्राप्त करने का लक्ष्य करते हैं। भव्य जीवों के भाग्य से और आपके वचनयोग से आपकी दिव्यध्वनि होती है, उसको श्रवण कर भव्य जीवों का भ्रम नष्ट हो जाता है || ३ ||
आपके गुणों का चिंतवन करने से स्व और पर का भेद - विज्ञान हो जाता है और मिथ्यात्व दशा में होनेवाली अनेक आपत्तियाँ (विकार) नष्ट हो जाती हैं। आप समस्त दोषों से रहित हो, सब विकल्पों से मुक्त हो, सर्व प्रकार की महिमा धारण करनेवाले हो और जगत के भूषण (सुशोभित करनेवाले) हो ॥४॥
हे परमात्मा ! आप समस्त उपमाओं से रहित, परम पवित्र, शुद्ध, चेतन (ज्ञान - दर्शन) मय हो। आप में किसी भी प्रकार का विरोधभाव नहीं है। आपने शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के विकारी - भावों का अभाव कर दिया है और स्वभाव-भाव से युक्त हो गये हो, अत: कभी भी क्षीण दशा को प्राप्त होनेवाले नहीं हो ॥ ५॥
आप अठारह दोषों से रहित हो और अनंत चतुष्टययुक्त विराजमान हो । केवलज्ञानादि नौ प्रकार के क्षायिक भावों को धारण करनेवाले होने से महान मुनि और गणधर देवादि आपकी सेवा करते हैं || ६ ||
आपके बताये मार्ग पर चलकर अंनत जीव मुक्त हो गये हैं, हो रहे हैं और सदा काल होते रहेंगे। इस संसार रूपी समुद्र में दुःख रूपी अथाह खारा पानी भरा हुआ है। आपको छोड़कर और कोई भी इससे पार नहीं उतार सकता है || ७ |
इस भयंकर दुःख को दूर करने में निमित्त कारण आप ही हो, ऐसा जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ और अनंत काल से दुःख पाया है, उसे आपसे कह रहा हूँ ॥ ८ ॥
(३)
मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप ।
अपनाये विधि फल पुण्य-पाप ।। निज को पर को करता पिछान ।
पर में अनिष्टता इष्ट ठान ।। ९ ।। आकुलित भयो अज्ञान धारि ।
ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि ।।
तन-परिणति में आपो चितार ।
कबहूँ न अनुभवो स्वपदसार ।। १० ।। तुमको बिन जाने जो कलेश ।
पाये सो तुम जानत जिनेश ।
पशु, नारक, नर, सुरगति मँझार ।
भव धर-धर मर्यो अनंत बार ।। ११ ।। अब काललब्धि बलतें दयाल ।
तुम दर्शन पाय भयो खुशाल ।। मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद्व ।
चाख्यो स्वातम - रस दुख - निकंद ।।१२।। तातैं अब ऐसी करहु नाथ ।
बिछुरै न कभी तुव चरण साथ ।। तुम गुणगण को नहिं छेव देव ।
जग तारन को तुव विरद एव ।। १३ ।। आतम के अहित विषय कषाय ।
इनमें मेरी परिणति न जाय ।।
मैं रहूँ आप में आप लीन ।
सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन ।। १४ ।। मेरे न चाह कछु और ईश ।
रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश ।। मुझ कारज के कारण सु आप ।
शिव करहु हरहु मम मोहताप ।। १५ ।। ( ४ )