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________________ लेखकीय : ऐसा क्या है इस उपन्यास में ? “आजीविका आदि के अति आवश्यक कार्यों के कारण समय कम है और साहित्यिक सामग्री प्रचुर है, क्या-क्या पढ़ें? आखिर इसमें ऐसा क्या है? जिसे जरूरी काम छोड़कर भी पढ़ा जाय?" यदि आपके मन में ऐसा प्रश्न उठे तो ये प्रारंभिक लेखकीय के पृष्ठ पढ़ ही लें। संभव है ये दो पृष्ठ पढ़ने पर आपको पूरी पुस्तक पढ़ने का मन हो जाय। ___मेरा विश्वास है कि यदि आपने पुस्तक पढ़ना प्रारंभ कर दिया तो पूरी पढ़े बिना नहीं रहा जायगा और हो सकता है कि आपको बहुत कुछ ऐसा ज्ञान मिल जाये जो आपके जीवन में आमूल चूल परिवर्तन ला दे। यदि सचमुच आपको सुखी और सफल जीवन की शुरूआत करना हो तो इसे अवश्य पढ़ें। इस कथानक का एक-एक पात्र अपने जीवंत आचार-विचार से आपको कुछ न कुछ ऐसा संदेश देगा, जो आपके लिए सुखद और सफल जीवन जीने को न केवल प्रेरित करेगा; बल्कि बाध्य करेगा और आपका जीवन सुखी हो जायेगा। ___ वस्तुतः सुखी जीवन के लिए जितनी जरूरत पैसे की है, उससे कहीं अधिक आवश्यकता मानसिक संतुलन की है; क्योंकि दुःख के मूल कारण दो हैं। पहला कारण है - ‘अर्थ का अभाव' और दूसरा कारण है ‘सही सोच की कमी।' जिसका सोच सही है, उसे धन की कमी नहीं रहती; क्योंकि सही सोच से पुण्यार्जन होता है और पैसा पुण्य से ही आता है। देखो, परिश्रम तो सभी करते हैं; पर पुण्य के बिना परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। परिश्रम तो श्रमिक अधिक करते हैं पर पैसा एयरकंडीसन में बैठे इंजीनियर आदि अधिकारियों को अधिक मिलता है। एक बार मैं एक पुरस्कार वितरण के समारोह में एक स्कूल में गया। वहाँ यद्यपि बालक छोटे थे; पर साथ में पालक भी आये थे। छोटे-बड़े सभी कुछ न कुछ नवीन प्रेरणा लेकर जाँय, इस पवित्र भावना से मैंने अपने अध्यक्षीय भाषण में एक प्रश्न पूछा - हम सब जितने यहाँ बैठे हैं क्या सबकी 'शकल' एक जैसी है? उत्तर था - नहीं। फिर मैंने पूछा - "क्या हम सबकी 'अकल' एक जैसी है?" फिर उत्तर मिला 'नहीं।' मैंने और भी ऐसे ही दो तीन प्रश्न पछे - “क्या सब एक जैसे अमीर या गरीब हैं? सबके माता-पिता एक जैसे स्वभाव के हैं? सबके घरों में एक जैसी सुख-सुविधायें हैं? सबका एक ही उत्तर था नहीं, नहीं, नहीं। ___ मैंने अन्त में पूछा - "इस असमानता का कारण क्या है” - एक आठ वर्ष के बालक ने हाथ उठाकर कहा - मैं बोलूँ? अनुमति पाकर वह बोला - “इसमें सोचने की क्या बात है जिसने पिछले जन्म में जैसा पुण्य-पाप किया, उसके फल के अनुसार उसे सुखद-दुःखद संयोग इस जन्म में मिले। एक बच्चा राजकुमार की तरह पलता है, पैदा होते ही चाँदी के पालने में झूलता, सोने की चम्मच उसके मुँह में होती। दूसरा फुटपाथ पर पैदा होता, होश संभालते ही भीख का कटोरा हाथ में होता, अभाव में जीता, एक दिन फुटपाथ पर ही मर जाता / जन्मजात यह अन्तर स्पष्ट बताता है कि व्यक्ति अपने भले-बुरे कर्मों का ही फल भोगता है। अत: यदि हम आर्थिक और मानसिक सुख चाहते हैं तो हमें सत्य का साथ देना होगा, सदाचारी जीवन जीना होगा। ऐसे शुभ काम करने होंगे, जिनसे पुण्यार्जन होता है और निर्दयता, बेईमानी छल-कपट धोखाधड़ी जैसे पाप परिणामों से बचना होगा। ऐसा करने से धनादि के अनुकूल संयोग तो मिलेंगे ही, मानसिक संतोष भी मिलेगा। घर-बाहर में विश्वास बढ़ेगा और हम यशस्वी जीवन जीने के साथ तन-मन एवं धन से भी सुखी होंगे।" यदि इन सबका प्रेक्टीकल रूप देखना हो तो यह पुस्तक अवश्य पढ़ें। - अध्यात्म रत्नाकर पण्डित रतनचन्द भारिल्ल
SR No.008385
Book TitleVidaai ki Bela
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size325 KB
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