________________
१४४
विदाई की बेला - दिनेशचन्द राजोरिया, नाहरगढ़ रोड़ नीमड़ी के थाने के पास, जयपुर • समाज की दिद्गदर्शक कृति
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है; किन्तु अबतक समाज के समक्ष सामाजिक चेहरों को प्रतिबिम्बित करनेवाले इतने अधिक दर्पण आ चुके हैं कि अब समाज उन दर्पणों में अपना विकृत मुख देखने का आदी सा हो गया है। इसलिए आज यह आवश्यक हो गया है कि साहित्य समाज का मात्र दर्पण ही नहीं, बल्कि दिशा दर्शक भी बने ।
लेखक की अत्यन्त लोकप्रिय कृति 'विदाई की बेला' जैसी ही 'सुखी जीवन' भी इसी नवीन प्रयोग की एक और महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें लोकोत्तर सुख-शान्ति प्राप्त करानेवाले दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण करने एवं वर्तमान जीवन की गूढ़ समस्याओं को सरलता से सुलझाने के लिए ही विद्वान लेखक ने कथा साहित्य का सहारा लिया है।
लेखक समय-समय पर गूढ़ विचारों और गहन अनुभूतियों को सरलतम रूप में जन-जन तक पहुँचाने श्रद्धास्पद बनाने के लिए अन्यान्य आचार्यों के कथनों का आधार भी ग्रहण करते रहे हैं।
उपन्यास होते हुए भी इसमें प्रेम भावों को पूरा उदात्तीकरण हुआ है। मानसिक एवं आध्यात्मिक योग का इतना आधिक्य है, जिससे इसमें लौकिक प्रेम का स्थान नगण्य हो गया है। सचमुच यह एक आध्यात्मिक रचना है, जो आत्मार्थियों का मार्गदर्शन करने में पूर्ण समर्थ है। बारम्बार स्वाध्याय करने योग्य है।
- डॉ. अनेकान्त जैन प्रवक्ता, लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली
(77)