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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति
पं. टोडरमल - प्रथमानुयोग में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महापुरुषों की प्रवृत्ति आदि बताकर जीवों को धर्म में लगाया जाता है। प्रथमानुयोग में मूल कथाएँ तो जैसी की तैसी होती हैं, पर उनमें प्रसंग-प्राप्त व्याख्यान कुछ ज्यों का त्यों और कुछ ग्रन्थकर्ता के विचारानुसार होता है, परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता । जैसे तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्र आए यह तो सत्य है, पर इन्द्र ने जैसी स्तुति की थी वे शब्द हूबहू वैसे ही नहीं थे, अन्य थे। इसी प्रकार परस्पर किन्हीं के वार्तालाप हुआ था सो उनके अक्षर तो अन्य निकले थे, ग्रन्थकर्ता ने अन्य कहे, पर प्रयोजन एक ही पोषते हैं। ___ तथा कहीं-कहीं प्रसंगरूप कथाएँ भी ग्रन्थकर्ता अपने विचारानुसार लिखते हैं। जैसे 'धर्म परीक्षा' में मूों की कथाएँ लिखीं, सो वही कथा मनोवेग ने कही थी ऐसा नियम नहीं है, किन्तु मूर्खपणे को पोषण करने वाली कही थी।
तथा प्रथमानुयोग में कोई धर्मबुद्धि से अनुचित कार्य करे उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे विष्णुकुमारजी ने धर्मानुराग से मुनियों का उपसर्ग दूर किया। मुनि पद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था, परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमारजी की प्रशंसा की है। इस छल से औरों को ऊंचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है।
पुत्रादिक की प्राप्ति के लिए अथवा रोग कष्टादिक को दूर करने के लिए स्तुति पूजनादि कार्य करना निकांक्षित अंग का अभाव होने से एवं निदान नामक आर्तध्यान होने से पाप बंध का कारण है, किन्तु मोहित होकर बहुत पाप बंध का कारण कुदेवादिक का सेवन तो नहीं किया, अतः उसकी प्रशंसा कर दी है। ऐसा छल करि औरों को लौकिक कार्यों के लिये धर्म साधन करना युक्त नहीं है।
दीवान रतनचंद - करणानुयोग के व्याख्यान का विधान क्या है?
पं. टोडरमल - करणानुयोग में केवलज्ञानगम्य वस्तु का व्याख्यान है, केवलज्ञान में तो सर्व लोकालोक आया है, परन्तु इसमें जीव को कार्यकारी छद्मस्थ के ज्ञान में आ सके ऐसा निरूपण होता है। जैसे - जीव के भावों की अपेक्षा गुणस्थान कहे हैं, सो भाव तो अनंत हैं, उन्हें तो वाणी से कहा नहीं जा सकता, अतः बहुत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं।
तथा करणानुयोग में भी कहीं उपदेश की मुख्यता सहित व्याख्यान होता है, उसे सर्वथा उसी प्रकार नहीं मानना । जैसे छडाने के अभिप्राय से हिंसादिक के उपाय को कुमतिज्ञान कहा । वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि से सभी ज्ञान कुज्ञान है और सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सुज्ञान हैं। दीवान रतनचंद - और चरणानुयोग में किस प्रकार का कथन होता है?
पं. टोडरमल - चरणानुयोग में जिस प्रकार जीवों के अपनी बुद्धिगोचर धर्म का आचरण हो वैसा उपदेश दिया जाता है। इसमें व्यवहार नय की मुख्यता से कथन किया जाता है, क्योंकि निश्चय धर्म के तो कुछ ग्रहण-त्याग का विकल्प है ही नहीं। अत: इसमें दो प्रकार से उपदेश देते हैं, एक तो मात्र व्यवहार का और एक निश्चय सहित व्यवहार का । व्यवहार उपदेश में तो बाह्य क्रियाओं की ही प्रधानता है, पर निश्चय सहित व्यवहार के उपदेश में परिणामों की ही प्रधानता है।
दीवान रतनचंद - अकेले व्यवहार का उपदेश किसके लिए है, और निश्चय सहित व्यवहार का किसके लिए?
पं. टोडरमल-जिन जीवों के निश्चय का ज्ञान नहीं है तथा उपदेश देने पर भी होता दिखाई नहीं देता, उन्हें तो अकेले व्यवहार का उपदेश देते हैं। तथा जिन जीवों को निश्चय-व्यवहार का ज्ञान हो अथवा उपदेश देने पर होना संभव हो उन्हें निश्चय सहित व्यवहार का उपदेश देते हैं। तथा चरणानुयोग में कहीं-कहीं कषायी जीवों को कषाय उत्पन्न करके भी पाप छुड़ाते हैं। जैसे - पाप का फल नरकादि दुःख दिखाकर भय कषाय उत्पन्न करके तथा पुण्य का फल स्वर्गादिक में सुख दिखाकर लोभ कषाय उत्पन्न करके धर्म कार्यों में लगाते हैं। इसी प्रकार शरीरादिक को अशुचि बताकर जगप्सा कषाय कराते हैं
और पुत्रादिक को धनादि का ग्राहक बताकर द्वेष कराते हैं। पूजा, दान, नामस्मरणादि का फल पुत्र धनादि की प्राप्ति का लोभ बताकर धर्म कार्यों में लगाते हैं । इसप्रकार चरणानुयोग में व्याख्यान होता है। अतः उसका प्रयोजन जान कर यथार्थ श्रद्धान करना चाहिए।
दीवान रतनचंद - इसी प्रकार द्रव्यानुयोग की भी अपनी अलग पद्धति होती होगी?
पं. टोडरमल - क्यों नहीं? द्रव्यानुयोग में जीवों को जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान जिस प्रकार हो उस प्रकार विशेष युक्ति, हेतु, दृष्टान्तादिक से
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