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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
पाठ ३
वर्णन करते हैं, क्योंकि इसमें यथार्थ श्रद्धान कराने का प्रयोजन है। जैसे स्वपर भेद विज्ञान हो, वैसे जीव अजीव का; एवं जैसे वीतराग भाव हो, वैसे आस्रवादिक का वर्णन करते हैं; आत्मानुभव की महिमा गाते हैं एवं व्यवहार कार्य का निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नहीं करते और बाह्य क्रियाकाण्ड में ही मग्न हैं, उनको वहाँ से उदास करके आत्मानुभव आदि में लगाने को व्रतशील संयमादि का हीनपना भी प्रगट करते हैं। शुभोपयोग का निषेध अशुभोपयोग में लगाने को नहीं करते हैं, किन्तु शुद्धोपयोग में लगाने के लिए करते हैं।
इस प्रकार चारों अनुयोगों की कथन पद्धति अलग-अलग हैं, पर सबका एक मात्र प्रयोजन वीतरागता का पोषण है। कहीं तो बहुत रागादि छुड़ाकर अल्प रागादि कराने का प्रयोजन पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि छुड़ाने का पोषण किया है, किन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कहीं भी नहीं है। बहुत क्या कहें, जिस प्रकार से रागादि मिटाने का श्रद्धान हो वही श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जिस प्रकार से रागादि मिटाने का जानना हो वही जानना सम्यग्ज्ञान है । तथा जिस प्रकार से रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र है। अतः प्रत्येक अनुयोग की पद्धति का यथार्थ ज्ञान कर जिनवाणी के रहस्य को समझने का यत्न करना चाहिए।
दीवान रतनचंद - शास्त्रों के अध्ययन में कहीं-कहीं परस्पर विरोध भासित हो तो क्या करें?
पं. टोडरमल - जिनवाणी में परस्पर विरोधी कथन नहीं होते हैं। हमें अनुयोगों की कथन पद्धति का एवं निश्चय-व्यवहार का सही ज्ञान नहीं होने से विरोध भासित होता है। यदि हमें शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति का ज्ञान हो जावे तो विरोध प्रतीत नहीं होगा। अतः सदा आगम-अभ्यास का प्रयास रखना चाहिए। मोक्षमार्ग में पहला उपाय आगम ज्ञान कहा है। अतः तुम यथार्थ बुद्धि द्वारा आगम का अभ्यास किया करो! तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा !! प्रश्न१. व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश क्यों नहीं हो सकता? स्पष्ट कीजिए। २. क्या व्यवहार नय स्वयं के लिए भी प्रयोजनवान है? यदि हाँ, तो कैसे? ३. चारों अनुयोगों के व्याख्यान के विधान का वर्णन कीजिए।
पुण्य और पाप समस्त भारतीय दर्शनों में आत्मा-परमात्मा, बंध-मोक्ष और लोकपरलोक के साथ पुण्य-पाप भी बहुचर्चित विषय रहा है। पुण्य-पाप किसे कहते हैं और उनका मुक्ति के मार्ग में क्या स्थान है? इस विषय पर जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मीमांसा करना ही यहाँ विचारणीय विषय है।
आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर आज तक जैन साहित्य के हर युग में पुण्यपाप मीमांसा होती रही है। आज भी यह चर्चा का मुख्य विषय है। विवाद पुण्य-पाप की परिभाषा के सम्बन्ध में न होकर मुक्ति-मार्ग में उसके स्थान को लेकर है।
पुण्य और पाप दोनों आत्मा की विकारी अन्तर्वृत्तियाँ हैं। देवपूजा, गुरूपासना, दया, दान, व्रत, शील, संयमादि के प्रशस्त परिणाम (शुभभाव) पुण्य भाव कहे जाते हैं और इनका फल अनुकूल संयोगों की प्राप्ति है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-संचय आदि के भाव पाप भाव हैं और इनका फल प्रतिकूलताएँ हैं।
सामान्य-जन पुण्य को भला और पाप को बुरा मानते हैं, क्योंकि मुख्यतः पुण्य से मनुष्य व देव गति की प्राप्ति होती है और पाप से नरक व तिर्यंच गति की। पर उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि चारों गतियाँ संसार ही हैं. दुःखरूप ही हैं। चारों गतियों में दुःख ही दुःख है, सुख किसी भी गति में नहीं है। पंडित दौलतरामजी ने छहढाला की पहली ढाल में चारों गतियों में दुःख ही दुःख बताया है। इस प्रकार वैराग्य-भावना में साफ-साफ लिखा है :
जो संसार विर्षे सुख हो तो, तीर्थंकर क्यों त्यागें । काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागैं ।।