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________________ तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२ शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति दीवान रतनचंद - जीव। पं. टोडरमल - जीव? दीवान रतनचंद - जिनवाणी में भी उन्हें जीव ही लिखा है। पं. टोडरमल - हाँ भाई! जिनवाणी में व्यवहार से नर-नारकादि पर्याय को जीव कहा, सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना । पर्याय तो जीव-पुद्गल के संयोग रूप है, वहाँ निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न है, उसको ही जीव मानना। जीव के संयोग से शरीरादि को भी उपचार से जीव कहा, सो कथन मात्र ही है; परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नहीं। इसी प्रकार अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शनादि भेद किए, सो उन्हें भेद रूप ही नहीं मान लेना, क्योंकि भेद तो समझाने के लिये किए हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है, उस ही को जीव-वस्तु मानना । संज्ञा-संख्यादि से भेद कहे, सो कथन मात्र ही है, परमार्थ से भिन्न-भिन्न है नहीं। दीवान रतनचंद - तो इसी प्रकार व्रत-शील-संयमादि को व्यवहार से मोक्षमार्ग कहाँ होगा? पं. टोडरमल - परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा से व्रत-शीलसंयमादि को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना, क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता-हर्ता हो जावे। परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन है नहीं। अतः आत्मा अपने रागादिक को त्याग कर वीतरागी होता है। निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है। इसीलिये तो कहा था कि जब तक हम यह न पहिचान पाएँ कि जिनवाणी में जो कथन है उसमें कौन तो सत्यार्थ है और कौन समझाने के लिये व्यवहार से कहा गया है तब तक हम सबको एकसा सत्यार्थ मानकर भ्रम रूप रहते हैं। दीवान रतनचंद - तो जिनवाणी में व्यवहार का कथन किया ही क्यों? पं. टोडरमल - व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाया नहीं जा सकता, अतः असत्यार्थ होने पर भी जिनवाणी में व्यवहार का कथन आता है। १. पर (निमित्त) की ओर का लक्ष्य छुड़ाने के लिए दीवान रतनचंद - व्यवहार के बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं हो सकता? पं. टोडरमल-निश्चय नय से तो आत्मा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभाव से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है, उसे जो नहीं पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहें तो वे समझ नहीं पावेंगे। अतः उन्हें समझाने हेतु व्यवहार से शरीरादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नर-नारकादिरूपजीव के विशेष किए तथा मनुष्य जीव, नारकी जीव आदि रूप से जीव की पहिचान कराई। इसी प्रकार अभेद वस्तु में भेद उत्पन्न करके समझाया । जैसे-जीव के ज्ञानादि गण पर्याय रूप भेद करके स्पष्ट किया; जाने सो जीव, देखे जो जीव । जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार व्यवहारी जनों को व्यवहार बिना निश्चय का ज्ञान नहीं कराया जा सकता है। दीवान रतनचंद - तो हमें कैसा मानना चाहिए? पं. टोडरमल - जहाँ निश्चय नय की मुख्यता से कथन हो, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही हैं" ऐसा जानना और जहाँ व्यवहार नय की मुख्यता से कथन हो, उसे "ऐसे हैं नहीं, निमित्त आदि की अपेक्षा उपचार किया है" ऐसा जानना। दीवान रतनचंद - व्यवहार नय पर को उपदेश देने में ही कार्यकारी है या अपना भी प्रयोजन साधता है? पं. टोडरमल - आप भी जब तक निश्चय नय से प्ररूपित वस्तु को न पहिचानें तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करे, अतः निचली दशा में अपने को भी व्यवहार नय कार्यकारी है; परन्तु व्यवहार को उपचार मानकर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझै तब तो कार्यकारी है, किन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर “इस प्रकार ही है" ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा अकार्यकारी हो जावे। इसी प्रकार चारों अनुयोगों के कथन को ठीक प्रकार से न समझने के कारण वस्तु के सत्य स्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। अतः चारों अनुयोगों के व्याख्यान का विधान अच्छी तरह समझना चाहिए। दीवान रतनचंद - प्रथमानुयोग के व्याख्यान के विधान को संक्षेप में समझाइये। 6
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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