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________________ शाखों के अर्थ समझने की पद्धति पाठ २ शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति पं. टोडरमल - इस भव तरु का मूल इक, जानहु मिथ्याभाव । ताको करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव ।। इस संसाररूपी वृक्ष की जड़ एक मिथ्यात्व ही है। अतः उसको जड़-मूल से नष्ट करके ही मोक्ष का उपाय किया जा सकता है। “जो जीव जैन हैं, जिन-आज्ञा को मानते हैं, उनके भी मिथ्यात्व क्यों रह जाता है?" हमें आज यह समझना है, क्योंकि मिथ्यात्व का अंश भी बुरा है और सूक्ष्म मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है। दीवान रतनचंद - जो जीव जैन हैं, और जिन-आज्ञा को मानते हैं, फिर उनके मिथ्यात्व कैसे रह जाता है? जिनवाणी में तो मिथ्यात्व की पोषक बात नहीं है। पं. टोडरमल - ठीक कहते हो। जिनवाणी में तो मिथ्यात्व की पोषक बात नहीं है। पर जो जीव जिनवाणी के अर्थ समझने की पद्धति नहीं जानते, वे उसके मर्म को तो समझ नहीं पाते । अपनी ही कल्पना से अन्यथा समझ लेते हैं, अतः उनका मिथ्यात्व नहीं छूट पाता है। दीवान रतनचंद - तो क्या जिनवाणी के अर्थ समझने की कोई पद्धति दीवान रतनचंद - तो जिनवाणी के अर्थ समझने की पद्धति क्या है? पं. टोडरमल - जिनवाणी में निश्चय-व्यवहार रूप वर्णन है। निश्चयव्यवहार का सही स्वरूप न समझने के कारण सामान्यजन उसके मर्म को नहीं समझ पाते हैं। इसी प्रकार जिनवाणी को चार अनयोगों की पद्धति में विभक्त करके लिखा गया है। प्रत्येक अनुयोग की अपनी-अपनी पद्धति अलगअलग है। जब तक हम उस पद्धति को समझेंगे नहीं तो जिनवाणी को पढ़कर भी उसके मर्म को नहीं जान पावेंगे। दीवान रतनचंद - कृपया आज हमें निश्चय-व्यवहार का स्वरूप और अनुयोगों की पद्धति के बारे में ही समझाइये। पं.टोडरमल - निश्चय-व्यवहार की बात तो विस्तार से कुछ दिन पूर्व ही समझा चुका हूँ तथा चार अनुयोगों के बारे में भी एक दिन विस्तार से बताया था। दीवान रतनचंद - हाँ ! उनकी सामान्य जानकारी तो हमें हैं, पर हम तो आज उन्हें शास्त्रों के अर्थ समझने की पद्धति के संदर्भ में समझना चाहते हैं। पं. टोडरमल - आपको निश्चय-व्यवहार का स्वरूप ज्ञात है तो बोलिए निश्चय किसे कहते हैं और व्यवहार किसे? दीवान रतनचंद - “यथार्थ का नाम निश्चय है और उपचार का नाम व्यवहार" अथवा इसप्रकार भी कह सकते हैं कि "एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही निरूपण करना निश्चय नय है और उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप वर्णन करना सो व्यवहार है।" पं. टोडरमल - तब तो आपको यह भी मालूम होगा कि व्यवहार नय स्वद्रव्य परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; और निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है। दीवान रतनचंद- हाँ! यह भी मालूम है। पं. टोडरमल - अच्छा तो बताओ मनुष्य-तिर्यंच कौन हैं? १. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग ३, पाठ ८ २. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग २, पाठ ४ भी है? पं. टोडरमल- क्यों नहीं? प्रत्येक काम करने और प्रत्येक बात समझने का अपना एक तरीका होता है। जब तक हम उस तरीके को न समझ लें तब तक कोई भी काम अच्छी तरह न तो कर ही सकते हैं और न कोई बात सही रूप में समझ ही सकते हैं। 5
SR No.008383
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size146 KB
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