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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
चतुर्दश गुणस्थान
सिद्ध परमेष्ठी
जो जीव पूर्वोक्त संसार की भूमिकास्वरूप चौदह गुणस्थानों को उल्लंघन कर द्रव्य-भाव उभयरूप ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से रहित हो गए हैं; निराकुल लक्षण आत्माधीन अनन्त सुख का निरन्तर भोग करते हैं; द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित होने के कारण निरंजन हैं; सिद्ध पर्याय को छोड़कर पुनः दूसरी पर्याय को प्राप्त नहीं होते हैं, इसलिए नित्य हैं; द्रव्य-भाव उभयरूप आठ कर्मों के नाश होने से सम्यक्त्व आदि आठ गुणों (क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व) को प्राप्त हुए हैं; आत्मा संबंधी कोई कार्य करने के लिए शेष न रहने से कृतकृत्य हैं; और चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं तथा नीचे जाने रूप स्वभाव के न होकर मात्र लोक के अग्रभाग तक ऊपर जाने रूप स्वभाव के होने से लोक के अग्रभाग में स्थित हैं; उन्हें सिद्ध कहते हैं।
(१२) क्षीणकषाय
जिन जीवों के भाव कषायों का सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान पूर्ण निर्मल अर्थात् द्रव्यभाव उभयरूप मोहकर्मों का सर्वथा अभाव होने से पूर्ण वीतरागता को प्राप्त एकरूप होते हैं, उनके उस गुणस्थान की क्षीणकषाय संज्ञा है। इसका भी काल अंतर्मुहूर्त है। इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्यस्थपना पाया जाने से इसे क्षीण कषाय वीतरागछद्यस्थ कहते हैं । इस गुणस्थान में स्थित यथाख्यात चारित्र के धारक मुनिराज को मोहनीय कर्म का तो अत्यन्त क्षय होता है और शेष तीन घाति कर्मों का क्षयोपशम रहता है, अन्तर्मुहूर्त में वे उनका भी क्षय करके तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं। (१३) सयोगकेवली जिन
जिन जीवों का केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो चुका है और जिन्हें नौ केवल-लब्धियाँ (क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) प्रगट होने से परमात्मा संज्ञा प्राप्त हुई है; वे जीव इन्द्रिय और आलोक आदि की अपेक्षा रहित असहाय ज्ञान-दर्शन युक्त होने से केवली'; योग से युक्त होने के कारण 'सयोग' और द्रव्य-भाव उभयरूप घाति कर्मों पर विजय प्राप्त करने के कारण 'जिन' कहलाते हैं; उनके इस गुणस्थान की संज्ञा सयोगकेवली जिन है। यही केवली भगवान अपनी दिव्यध्वनि से भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसार में मोक्षमार्ग का प्रकाश करते हैं। ___ इस गुणस्थान में योग का कंपन होने से एक समय मात्र की स्थिति का साता वेदनीय का आस्रव होता है, लेकिन कषाय का अभाव होने से बंध नहीं होता। (१४) अयोगकेवली जिन
इस गुणस्थान में स्थित अरहन्त भगवान मन, वचन, काय के योगों से रहित और केवलज्ञान सहित होने से इस गुणस्थान की संज्ञा अयोगकेवली जिन है। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, लु इन पाँच हस्व स्वरों के उच्चारण करने के बराबर है। इस गुणस्थान के अंतिम दो समय में अघाति कर्मों की सर्व कर्म प्रकृतियों का क्षय करके ये भगवान सिद्धपने को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न - १. गुणस्थान किसे कहते हैं? वे कितने प्रकार के हैं? नाम सहित गिनाइये। २. निम्नलिखित में परस्पर अन्तर बताइये :
(क) प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । (ख) अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । (ग) उपशांतकषाय और क्षीणकषाय ।
(घ) सयोगकेवली जिन और अयोगकेवली जिन। ३. निम्नलिखित गुणस्थानों की परिभाषा दीजिए :
सासादन, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत, मिथ्यात्व। ४. सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिए।