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तीर्थंकर भगवान महावीर
पाठ८
तीर्थंकर
भगवान महावीर तीर्थंकर भगवान महावीर भरतक्षेत्र व इस युग के चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर थे। उनसे पूर्व ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकर और हो चुके थे।
भगवान अनन्त होते हैं। पर तीर्थकर एक युग में व भरत क्षेत्र में चौबीस ही होते हैं। प्रत्येक तीर्थकर भगवान तो नियम से होते ही हैं; पर प्रत्येक भगवान, तीर्थंकर नहीं। तीर्थकर हए बिना भी भगवान हो सकते हैं। प्रत्येक आत्मा भगवान बन सकता है। जिससे संसार-सागर तिरा जाय उसे तीर्थ कहते हैं और जो ऐसे तीर्थ को करें अर्थात् संसार-सागर से पार उतरें तथा उतरने का मार्ग बतावें, उन्हें तीर्थकर कहते हैं।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त जितने गूढ, गम्भीर व ग्राह्य हैं; उनका जीवन उतना ही सादा,सरल एवं सपाट है; उसमें विविधताओं को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । संक्षेप में उनकी जीवन गाथा मात्र इतनी ही है कि वे आरंभ के तीस वर्षों में वैभव और विलास के बीच जल से भिन्न कमलवत् रहे । बीच के बारह वर्षों में जंगल में परम मंगल की साधना में एकान्त आत्मआराधनारत रहे और अंतिम तीस वर्षों में प्राणिमात्र के कल्याण के लिए सर्वोदय धर्मतीर्थ का प्रवर्तन, प्रचार व प्रसार करते रहे। महावीर का जीवन घटनाबहुल नहीं है। घटनाओं में उनके व्यक्तित्व को खोजना व्यर्थ है। ऐसी कौनसी लौकिक घटना शेष है जो उनके अनन्त पूर्व-भवों में उनके साथ न घटी हो?
महावीर का जन्म वैशाली गणतंत्र के प्रसिद्ध राजनेता लिच्छवि राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के उदर से कुण्डग्राम में हुआ था। उनकी माँ वैशाली
गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की पुत्री थीं। वे आज से २५७१ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन नाथ (ज्ञातृ) वंशीय क्षत्रीय कुल में जन्मे थे। महावीर का नाम उनके माता-पिता ने उनको वृद्धिंगत नित्य होते देख वर्द्धमान रखा।
उनके जन्म का उत्सव उनके माता-पिता व परिजन-पुरजनों ने तो बहुत उत्साह के साथ मनाया ही था, साथ ही भावी तीर्थंकर होने से इन्द्रों और देवों ने भी आकर महान उत्सव किया था जिसे जन्म-कल्याणक महोत्सव कहते हैं। इन्द्र ने उन्हें ऐरावत हाथी पर बैठाकर ठाट-बाट से जन्माभिषेक किया था, जिसका विस्तृत वर्णन जैन पुराणों में उपलब्ध है।
उनके तीर्थंकरत्व का पता तो उनके गर्भ में आने के पूर्व ही चल गया था। एक दिन रात्रि के पिछले पहर में शान्तचित्त निद्रावस्था में प्रियकारिणी माता त्रिशला ने महान शुभ के सूचक निम्नांकित सोलह स्वप्न देखे :
(१) महोन्मत्त गज (२) ऊँचे कंधों वाला शुभ्र बैल (३) गर्जता सिंह (४) कमल के सिंहासन पर बैठी लक्ष्मी (५) दो सुगंधित मालाएँ (६) नक्षत्रों की सभा में बैठा चंद्र (७) उगता हआ सूर्य (८) कमल के पत्तों से ढंके दो स्वर्णकलश (९) जलाशय में क्रीड़ारत मीन-युगल (१०) स्वच्छ जल से भरपूर जलाशय (११) गंभीर घोष करता सागर (१२) मणि-जड़ित सिंहासन (१३) रत्नों से प्रकाशित देव-विमान (१४) धरणेन्द्र का गगनचुम्बी विशाल भवन (१५) रत्नों की राशि और (१६) निधूम अग्नि।
प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत्त होकर माँ त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ को जब उक्त स्वप्न-प्रसंग सुनाया और उनका फल जानना चाहा तब निमित्त-शास्त्र के वेत्ता राजा सिद्धार्थ पुलकित हो उठे । शुभ स्वप्नों का शुभतम फल उनकी वाणी से पहिले उनकी प्रफुल्ल मुखाकृति ने कह दिया। उन्होंने बताया कि तुम्हारे उदर से तीन लोक के हृदयों पर शासन करने वाले धर्मतीर्थ के प्रवर्तक, महाभाग्यशाली, भावी तीर्थकर बालक का जन्म होगा। आज तुम्हारी कुक्षि उसी प्रकार धन्य हो गई जिस प्रकार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) के गर्भभार से मरुदेवी की हुई थी।
समग्रतः ये स्वप्न बताते हैं कि तुम्हारा पुत्र पुष्पों के समान कोमल, चन्द्रमा शीतल, सूर्यसा प्रतापी, अज्ञानरूप अन्धकार का नाशक, गजसा बलिष्ठ, वृषभसा कर्मठ, सागरसा गंभीर, रत्नों की राशिसा निर्मल एवं निर्धम अग्निशिखासा जाज्वल्यमान होगा।
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