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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग - २
उपरोक्त मुनिराज उग्र पुरुषार्थपूर्वक आत्मरमणता विशेष बढ़ जाने पर श्रेणी आरोहण के सन्मुख होकर अधः प्रवृत्तकरणरूप विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, उनके उस गुण की सातिशय अप्रमत्तसंयत संज्ञा है। वे जब क्षपक श्रेणी आरोहण के योग्य उग्र पुरुषार्थ द्वारा आत्मलीनता करते हैं तो अन्तर्मुहूर्त में ८, ९, १० और १२वें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं और उनके चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों का क्षय हो जाता है तथा अंतर्मुहूर्त में वे केवलज्ञान को (१३वें गुणस्थान को) अवश्य प्राप्त करते हैं। यदि वे उपशम श्रेणी के योग्य मंद पुरुषार्थ द्वारा आत्मलीनता करते हैं तो अंतर्मुहूर्त में ८, ९, १० और ११वें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं और उनके उपरोक्त २१ प्रकृतियों का क्षय न होकर मात्र उपशम होता है।
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अधःप्रवृत्तकरण का काल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ 'करण' का अर्थ परिणाम है। अधःप्रवृत्तकरण स्थित जीव को प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धता होती रहती है और भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपरितन समयवर्ती (आगेआगे के समयवर्ती) तथा अधस्तन समयवर्ती (पीछे-पीछे के समयवर्ती) जीवों के परिणाम विसदृश भी होते हैं तथा सदृश भी होते हैं। ऐसे अधःप्रवृत्तकरण युक्त जीवों को सातिशय अप्रमत्तसंयत कहते हैं। (८) अपूर्वकरण
इस गुणस्थान में स्थित जीवों के परिणामों की संज्ञा अपूर्वकरण है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है। यहाँ भी प्रत्येक जीव के परिणाम में प्रत्येक समय अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपरितन समयवर्ती जीव के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीव के परिणामों से सदा विसदृश ही (अपूर्व ही, विशेष विशुद्धि वाले ही) होते हैं, और अभिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम परस्पर सदृश भी होते हैं तथा विसदृश भी होते हैं। इस गुणस्थान में स्थित जीवों की इस प्रकार की परिणाम-धारा होने से इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। जो उपशम श्रेणी पर आरोहण करते हैं उनके भी ये परिणाम होते हैं, तथा जो क्षपक श्रेणी पर आरोहण करते हैं उनके भी ये परिणाम होते हैं।
१ उदाहरण रूप से किन्हीं दो जीवों को अपूर्वकरण प्रारम्भ किये हुए ५-५ समय हुए हों तथा उन दोनों जीवों को अभिन्न समयवर्ती अर्थात् एक समयवर्ती कहा जाता है।
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चतुर्दश गुणस्थान
(९) अनिवृत्तिकरण
इस गुणस्थान में स्थित जीवों के परिणामों की संज्ञा अनिवृत्तिकरण है। अनिवृत्ति अर्थात् अभेद (सदृश) और करण अर्थात् परिणाम । यहाँ भी प्रत्येक जीव के एक समय में एक ही परिणाम होता है जो प्रत्येक समय अनन्तगुणी विशुद्धि को लिये हुए होता है जो प्रत्येक समय में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा, उपरितन समयवर्ती जीव का परिणाम अधस्तनवर्ती जीव के परिणाम से विसदृश ही (अनन्तगुणी विशुद्धि वाला ही) होता है और अभिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदा सदृश ही होते हैं। इस गुणस्थान में स्थित जीवों की ऐसी परिणाम-धारा होने से इस गुणस्थान का नाम अनिवृत्तिकरण है। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान में स्थित जीव ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा मोहनीय की २० प्रकृतियों की उपशमना करते हैं या मोहनीय की २० प्रकृतियों की तथा नाम कर्म की १३ प्रकृतियों की क्षपणा करते हैं। इनके बध्यमान आयु का अभाव होता है।
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(१०) सूक्ष्म साम्पराय
जिन जीवों के सूक्ष्म भाव को प्राप्त साम्पराय अर्थात् अबुद्धिपूर्वक होने वाले सूक्ष्म लोभ कषाय के साथ अपने अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धि को लिए हुए एक समय में एक ही (नियत विशुद्धि वाला ही) परिणाम होता है और जिनके निरन्तर कर्म प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण होता रहता है, उनके उस गुणस्थान की सूक्ष्म साम्पराय संज्ञा है। (११) उपशान्तकषाय
जिस गुणस्थान में मलिन जल में कतक फल के डालने पर स्वच्छ हुए जल के समान या शरद् ऋतु में स्वच्छ हुए जल के समान जीवों की द्रव्यभावरूप कषाय उपशान्त रहती है, उनके गुणस्थान की उपशांत कषाय संज्ञा है। इसका काल भी अंतर्मुहूर्त है और इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थापना पाया जाने से इसे उपशान्तकषाय वीतरागछद्यस्थ कहते हैं। पिछले गुणस्थानों में कषायों के तारतम्य से जैसा परिणाम भेद दृष्टिगोचर होता है, वीतराग भाव की प्राप्ति होने से वैसा परिणाम भेद इस सहित आगे के गुणस्थानों में दृष्टिगोचर नहीं होता। यहाँ चार घाति कर्मों में से मोहनीय कर्म का उपशम होता है, बाकी तीन कर्मों का क्षयोपशम रहता है। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर
अथवा आयु पूर्ण होने पर जीव का इस गुणस्थान से पतन होता है।