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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
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(५) देशविरत
चतुर्थ गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा की शुद्ध परिणति को स्वसन्मुख पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाता हुआ पंचम गुणस्थान को प्राप्त करता है। उसको आत्मा का निर्विकल्प अनुभव (चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा) शीघ्रशीघ्र होने लगता है और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता है । आत्मिक शांति बढ़ जाने के कारण पर से उदासीनता बढ़ जाती है तथा सहज देशव्रत के शुभ भाव होते हैं। अतः वह श्रावक के व्रतों का यथावत् पालन करता है परन्तु अपनी शुद्ध परिणति विशेष उग्र नहीं होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का सद्भाव बने रहने से भावरूप मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता है। यह अवस्था ही देशविरत नामक पंचम गुणस्थान है। इसे व्रताव्रत या संयतासंयत गुणस्थान भी कहते हैं, क्योंकि अंतरंग में निश्चय व्रताव्रत या निश्चय संयमासंयम रूप दशा होती है और बाह्य में एक ही समय में त्रसवध से विरत और स्थावरवध से अविरत रहता है। इस गुणस्थान वाले श्रावक के अणुव्रत नियम से होते हैं। ग्यारह प्रतिमाधारी आत्मज्ञानी क्षुल्लक, ऐलक व आर्यिका इसी गुणस्थान में आते हैं। (६) प्रमत्तसंयत
जिस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष ने निज द्रव्याश्रित पुरुषार्थ द्वारा पंचम गुणस्थान से अधिक शुद्धि प्राप्त करके निश्चय सकल संयम प्रगट किया है और साथ में कुछ प्रमाद भी वर्तता है, उसे प्रमत्तसंयम गुणस्थानवर्ती कहते हैं। अनन्तानुबंध आदिक बारह कषायों का अभाव होने से पूर्ण संयमाभाव होने के साथ संज्वलन कषाय और नौकषाय की यथासंभव तीव्रता रहने से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है, इसलिए इस गुणस्थान की प्रमत्तसंयत संज्ञा सार्थक है।
इस गुणस्थान में मुनि महाव्रतों को अपेक्षा सविकल्प अवस्था में ही होते हैं. इसलिए यद्यपि इसमें उपदेश का आदान-प्रदान, आहारादि का ग्रहण, मल आदिक का उत्सर्ग, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आना-जाना इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प होते हैं तथापि साथ-साथ मुनियोग्य आन्तरिक शुद्ध परिणति (निश्चय संयम दशा) निरन्तर रहती है और उसके अनुरूप २८ मूलगुण व उत्तरगुणों का और शील के सब भेदों का यथावत पालन भी सहज होता है। वे २८ मूलगुण निम्न प्रकार हैं:- ५ महाव्रत, ५ समिति, ६ आवश्यक,
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चतुर्दश गुणस्थान
५ इन्द्रियसंयम, १ नग्नता, १ केशलुंचन, १ अस्नानता, १ भूमिशयन, १ अदंत धोवन, १ खड़े रहकर आहार लेना, १ एकभुक्ति ।
स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपाल कथा, ये चार विकथा; क्रोध, मान, माया और रलोभ, ये चार कषाय; पाँच इन्द्रियाँ; निद्रा और प्रणय (स्नेह) ये १५ प्रमाद हैं। इनके प्रत्येक और संयोगी सब मिलाकर ८० भेद होते हैं। यह प्रमाद संयम में मल उत्पन्न करता हुआ भी छठे गुणस्थान योग्य निश्चय संयम का घात नहीं करता ।
छठे गुणस्थान में (यथोचित शुद्ध परिणति सहित) सविकल्पता, सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पता होती है, तथा दोनों का काल अंतर्मुहूर्त ही होता है; अतः मुनिराज हजारों वर्ष तक भी मुनिदशा में रहें तो भी उनको अंतर्मुहूर्त में गुणस्थान का पलटन होता रहता है अर्थात् श्रेणी में आरोहण नहीं करने वाले प्रत्येक मुनिराज मुनिदशा में रहते हुए अंतर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान से छठे में आते हैं और फिर छठे से सातवें में चले जाते हैं, ऐसा (सविकल्प - निर्विकल्प का पलटन) अनवरत होता ही रहता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि मुनिदा शुरू होते ही सर्वप्रथम सातवाँ गुणस्थान आता है, पीछे छठा होता है। (७) अप्रमत्तसंयत
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जो भावलिंगी मुनिराज पूर्वोक्त १५ प्रकार के प्रमाद रहित हैं, उन्हें अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहते हैं। इनके अनन्तानुबंधी आदि १२ कषायों का अभाव तो होता ही है, साथ ही संज्वलन कषायों तथा नोकषायों की तीव्रता न होकर सप्तम गुणस्थान योग्य मंदता होती है, अतः इनके मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद नहीं होता और मूलगुण उत्तरगुण आदि की सहज निरतिचार परिणति बनी रहती है, इसलिए इसकी अप्रमत्तसंयत संज्ञा सार्थक है। इस गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक विकल्प नहीं रहते और निर्विकल्प आत्मा के अनुभव रूप ध्यान ही वर्तता है। सातवें सहित आगे के सब गुणस्थानों की निर्विकल्प स्थिति ही होती है।
इस गुणस्थान के दो भेद हैं:
(१) स्वस्थान अप्रमत्तसंयत (२) सातिशय अप्रमत्तसंयत जो संयत क्षपकश्रेणी और उपशमश्रेणी पर आरोहण न कर निरन्तर एकएक अन्तर्मुहूर्त में अप्रमत्त भाव से प्रमत्तभाव को और प्रमत्तभाव से अप्रमत्तभाव को प्राप्त होते रहते हैं, उनके उस गुण की स्वस्थान अप्रमत्तसंयत संज्ञा है।