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तत्त्वज्ञान पाठमाला भाग -२
चतुर्दश गुणस्थान
रत्नत्रयरूप आत्मधर्म नहीं रुचता। मिथ्यात्वी जीव को स्व-पर विवेक नहीं होता अर्थात् उसको स्वानुभूतिपूर्वक विपरीत अभिनिवेश रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता तथा उसको देव-शास्त्र-गुरु की यथार्थ श्रद्धा नहीं होती।
मिथ्यादर्शन के दो भेद हैं - अगृहीत और गृहीत । एकेन्द्रियादि सभी संसारी जीवों के प्रवाह रूप से जो अज्ञानभावमय मिथ्या मान्यता चली आ रही है, जिससे जीव की देहादि जड़ पदार्थों में और उनको निमित्त कर हुए रागादि भावों में एकत्वबुद्धि बनी रहती है, वह अगृहीत मिथ्यादर्शन है। इसके सद्भाव में जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले जीवों द्वारा कल्पित जो अन्यथा मान्यता नयी अंगीकार की जाती है, उसे गृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। (२) सासादन
सम्यग्दर्शन की विराधना को आसादन कहते हैं तथा उसके साथ जो भाव होता है उसको सासादन कहते हैं। जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ने अनन्तानुबंधी कषाय के उदयवश औपशमिक सम्यग्दर्शन के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलिकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन रूपी रत्नपर्वत के शिखर से च्युत होकर मिथ्यादर्शन रूपी भूमि के सन्मुख होते हुए सम्यग्दर्शन का तो नाश कर दिया है किन्तु मिथ्यादर्शन को प्राप्त नहीं हुआ है, उस जीव की उस अवस्था को सासादन गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान का पूरा नाम सासादन सम्यक्त्व है। सासादन पद के साथ सम्यक्त्व पद का प्रयोग भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा हुआ है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। (३) मिश्र
जिस गुणस्थान में जीव सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदयवश समीचीन और मिथ्या उभयरूप श्रद्धा युगपत् होती है, उसकी उस श्रद्धा को मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जिस प्रकार दही और गुड़ के मिलाने पर उनका मिला हुआ परिणाम (स्वाद) युगपत अनुभव में आता है, उसी प्रकार ऐसी श्रद्धा वाले जीव के समीचीन और मिथ्या उभयरूप श्रद्धा होती है। यहाँ अनन्तानुबंधी कषाय का उदय नहीं है। इस गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त है।
इस गुणस्थान से सीधे देशविरत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा यहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध व मरण तथा मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है। (४) अविरत सम्यक्त्व
निश्चय सम्यग्दर्शन से सहित और निश्चय व्रत (अणुव्रत और महाव्रत) से रहित अवस्था ही अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहलाता है।
जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क्षयोपशम आदि लब्धियों तथा चतुर्थ गुणस्थान के योग्य बाह्य आचार से सम्पन्न होने पर स्वपुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख होने पर आत्मानुभूतिपूर्वक होती है अर्थात् वह अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझता है कि “मैं तो त्रिकाल एकरूप रहनेवाला ज्ञायक परमात्मा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, अन्य सब ज्ञेय हैं, पर के साथ मेरा कोई सम्बन्ध है ही नहीं। अनेक प्रकार के विकारी भाव जो पर्याय में होते हैं, वे मेरा स्वरूप नहीं हैं, ज्ञाता स्वभाव की दृष्टि एवं लीनता करते ही वे नाश को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होते।" इस प्रकार निर्णयपूर्वक दृष्टि स्वसन्मुख होकर निर्विकल्प आनन्दरूप परिणति का साक्षात् अनुभव करती है, तथा निर्विकल्प अनुभव के छूट जाने पर भी मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी कषायों के अभावस्वरूप आत्मा की शुद्ध परिणति निरन्तर बनी रहती है, उसको अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं।
इसके तीन भेद होते हैं :(१) औपशमिक (२) क्षायोपशमिक (३) क्षायिक
इन तीन प्रकार के सम्यग्दर्शनों में से किसी एक सम्यग्दर्शन के साथ जब तक इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के उदयवश अविरतिरूप परिणाम बना रहता है तब तक उसके अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान रहता है। अविरत सम्यग्दष्टि आत्मज्ञान से सम्पन्न होने के कारण अभिप्राय की अपेक्षा विषयों के प्रति सहज उदासीन होता है। चरणानुयोग के अनुसार आचरण में उसके पंचेन्द्रियों के विषयों का तथा त्रस-स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं होता। इसलिए इसके बारह प्रकार की अविरति पाई जाती है।
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