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________________ १० सात तत्व सम्बन्धी भूलें तत्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ है। जब तक ऐसी दशा न हो, तब तक प्रशस्तराग रूप प्रवर्तन करे; परन्तु श्रद्धा तो ऐसी रखे कि यह भी बंध का कारण है; हेय है। श्रद्धा में इसे मोक्षमार्ग माने तो मिथ्यादृष्टि ही है। ३. मिथ्यात्वादि आस्रवों के अन्तरंग स्वरूप को तो पहिचानता नहीं है; उनके बाह्य रूप को ही आसव मानता है। जैसे - (क) गृहीत मिथ्यात्व को ही मिथ्यात्व जानता है; परतु अनादि अगृहीत मिथ्यात्व है, उसे नहीं पहिचानता। (ख) बाह्य जीवहिंसा और इन्द्रिय-मन के विषयों में प्रवृत्ति को अविरति जानता है, पर हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है तथा विषय सेवन में अभिलाषा मूल है, उसे नहीं जानता। (ग) बाह्य क्रोधादि को ही कषाय मानता है। अभिप्राय में जो राग-द्वेष रहते हैं, उन्हें नहीं पहिचानता। (घ) बाह्य चेष्टा को ही योग मानता है। अन्तरंग शक्तिभूत योग को नहीं जानता। ४. जो अंतरंग अभिप्राय में मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं, वस्तुत: वे ही आस्रवभाव हैं। इनकी पहिचान न होने से आस्रव तत्त्व का भी सही श्रद्धान नहीं है। बन्ध तत्त्व सम्बन्धी भूल १. पापबंध के कारण अशुभ भावों को तो बुरा जानता है, पर पुण्यबंध के कारण शुभ भावों को भला मानता है। पुण्य-पाप का भेद तो अघाति कर्मों में है, घातिया तो पापरूप ही है तथा शुभ भावों के काल में भी घाति कर्म तो बंधते ही रहते हैं, अत: शुभ भाव बंध के ही कारण होने से भले कैसे हो सकते हैं ? संवर तत्त्व सम्बन्धी भूल १. अहिंसादिरूप शुभास्रवों को संवर जानता है, पर एक ही कारण से पुण्यबंध और संवर दोनों कैसे हो सकते हैं ? उसका उसे पता नहीं। २. शास्त्र में कहे संवर के कारण गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र को भी यथार्थ नहीं जानता। जैसे - (क) पाप चितवन न करे, मौन धारण करे, गमनादि न करे, उसे गुप्ति मानता है; पर भक्ति आदिरूप प्रशस्तराग से नाना विकल्प होते हैं, १. शुभ राग, २. इच्छा ३. राग-द्वेषयुक्त विचार उनकी तरफ लक्ष्य नहीं। वीतरागभाव होने पर मन-वचन-काय की चेष्टा न हो - वही सच्ची गुप्ति है। (ख) इसीप्रकार यत्नाचार प्रवृत्ति को समिति मानता है, पर उसे यह पता नहीं कि हिंसा के परिणामों से पाप होता है और रक्षा के परिणामों से संवर कहोगे तो पुण्यबंध किससे होगा ? मुनियों के किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है, वहाँ उन क्रियाओं में अत्यासक्ति के अभाव में प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा अन्य जीवों को दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, अत: स्वयमेव दया पलती है- यही सच्ची समिति है। (ग) बंधादिक के भय से, स्वर्ग-मोक्ष के लोभ से क्रोधादि न करे । क्रोधादि का अभिप्राय मिटा नहीं, पर अपने को क्षमादि धर्म का धारक मानता है। तत्त्वज्ञान के अभ्यास से जब कोई पदार्थ इष्ट और अनिष्टरूप भासित नहीं होते, तब स्वयमेव ही क्रोधादि उत्पन्न नहीं होते - तब सच्चा धर्म होता है। (घ) अनित्यादि भावना के चिन्तवन से शरीरादिक को बुरा जान उदास होने को अनुप्रेक्षा कहता है पर उसकी उदासीनता द्वेषरूप होती है। वस्तु का सही रूप पहिचान कर भला जान राग नहीं करना, बरा जान द्वेष नहीं करना - यही सच्ची उदासीनता है। (च) क्षुधादिक होने पर उसके नाश का उपाय नहीं करने को परिषहजय मानता है; अन्तर में क्लेशरूप परिणाम रहते हैं, उन पर ध्यान नहीं देता। इष्ट-अनिष्ट में सुखी-दु:खी नहीं होना व ज्ञाता-दृष्टा रहना यही सच्चा परिषहजय है। (छ) हिंसादि के त्याग को चारित्र मानता है तथा महाव्रतादि शुभ योग को उपादेय मानता है, पर तत्त्वार्थसूत्र में आस्रवाधिकार में अणुव्रतमहाव्रत को आस्रवरूप कहा है, वे उपादेय कैसे हो सकते हैं ? तथा बंध का कारण होने से महाव्रतादि को चारित्रपना सम्भव नहीं है। सकल कषाय रहित उदासीन भाव, उसी का नाम चारित्र है। मुनिराज मन्द कषायरूप महाव्रतादि का पालन तो करते हैं, पर उन्हें मोक्षमार्ग नहीं मानते। DShruteshs.6.naishnuiashankshankabinaleevupamPatmalaPart-1
SR No.008382
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size166 KB
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