________________
सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें
पाठ ३
लक्षण और लक्षणाभास
निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल १. वीतराग भावरूप तप को तो जानता नहीं है, बाह्य क्रिया में ही लीन रहे. उसे ही तप मानकर उससे निर्जरा मानता है।
२. उसे यह पता नहीं कि जितना शुद्ध भाव है, वह तो निर्जरा का कारण है और जितना शुभ भाव है वह बंध का कारण है। निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, वही निर्जरा का कारण है।
मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल १. मोक्ष और स्वर्ग के सुख को एक जाति का मानता है; जबकि स्वर्गसुख इन्द्रियजन्य है और मोक्षसुख अतीन्द्रिय।
२.स्वर्ग और मोक्ष के कारण को भी एक मानता है, जबकि स्वर्ग का कारण शुभ भाव है और मोक्ष का कारण शुद्ध भाव ।
इस प्रकार जैन शास्त्रों के पढ़ लेने के बाद भी सातों तत्त्वों का विपरीत श्रद्धान बना रहता है।
प्रश्न - १. जैन शास्त्रों के अध्ययन कर लेने पर भी क्या कोई जीव मिथ्यादृष्टि रह सकता
है? यदि हाँ, तो किस प्रकार? स्पष्ट कीजिए। २. यह आत्मा जीव और अजीव के सम्बन्ध में क्या भूल करता है? ३. पुण्य को मुक्ति का कारण मानने में क्या आपत्ति है ? इस मान्यता से कौन
कौन से तत्त्वसम्बन्धी भूलें होंगी? ४. स्वर्ग और मोक्ष में कारण और स्वरूप की अपेक्षा भेद बताइये। ५. संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए -
गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय । ६. पण्डित टोडरमलजी के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
अभिनव धर्मभूषण यति व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
(१३५८-१४१८ ई.) धर्मभूषण नाम के कई जैन साहित्यकार हुए हैं। उन सबसे पृथक् बतलाने के लिए इनके नाम के आगे अभिनव शब्द और अन्त में यति शब्द जुड़ा मिलता है। ये कुन्दकुन्दाम्नायी थे और इनके गुरु का नाम वर्द्धमान था। इनका अस्तित्व १३५८ से १४१८ ई. तक माना जाता है।
इनके प्रभाव और व्यक्तित्व सूचक जो उल्लेख मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि ये अपने समय के बड़े ही प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले महापुरुष थे। राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित प्रथम देवराय इनके चरणों में मस्तक झुकाया करते थे।
जैनधर्म की प्रभावना करना तो इनके जीवन का व्रत था ही, किन्तु ग्रन्थरचना कार्य में भी इन्होंने अपनी अनोखी सूझबूझ, तार्किक शक्ति और विद्वत्ता का पूरा-पूरा उपयोग किया है। आज हमें इनकी एकमात्र अमर रचना 'न्यायदीपिका' प्राप्त है, जिसका जैन न्याय में अपना एक विशिष्ट स्थान है। 'न्यायदीपिका' संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त सुविशद एवं महत्त्वपूर्ण कृति है। इसमें संक्षेप में प्रमाण और नय का तर्कसंगत वर्णन है। यद्यपि न्यायग्रन्थों की भाषा अधिकांशतः दुरूह और गंभीर होती है; किन्तु इस ग्रन्थ की भाषा सरल एवं सुबोध संस्कृत है।
प्रस्तुत पाठ इसके आधार पर ही लिखा गया है।
१. न्यायदीपिका प्रस्तावना : वीर सेवा मंदिर सरसावा, पृष्ठ : ९२-९३ २. वही, पृष्ठ : ९९-१०० ३. मिडियावल जैनिज्म, पृष्ठ : २९९
DShrutes 5.6.04 shruteshik
T
an Patna Part-