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________________ सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें तत्त्वज्ञान पाठमाला, भाग-१ * सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका (वि. सं. १८१८) निरूपक अनेक शास्त्र; अरु सुष्ठु कथा सहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं; तिनि विर्षे हमारे बुद्धि अनुसार अभ्यास वर्ते है।" उन्होंने अपने जीवन में छोटी-बड़ी बारह रचनाएँ लिखी, जिनका परिमाण करीब एक लाख श्लोक प्रमाण और पाँच हजार पृष्ठ के करीब है। इनमें कुछ तो लोकप्रिय ग्रंथों की विशाल प्रामाणिक टीकाएँ हैं और कुछ हैं स्वतन्त्र रचनाएँ। वे गद्य और पद्य दोनों रूपों में पाई जाती हैं। वे कालक्रमानुसार निम्नलिखित हैं - १) रहस्यपूर्ण चिट्ठी (वि.सं. १८११) २) गोम्मटसार जीवकाण्ड भाषा टीका ३) गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषा टीका ४) अर्थसंदृष्टि अधिकार ५) लब्धिसार भाषा टीका ६)क्षपणासार भाषा टीका ७) गोम्मटसार पूजा ८) त्रिलोकसार भाषा टीका ९) समवशरण रचना वर्णन १०) मोक्षमार्ग प्रकाशक (अपूर्ण) ११) आत्मानुशासन भाषा टीका १२) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भाषा टीका (अपूर्ण) इसे पण्डित दौलतरामजी कासलीवाल ने वि. सं. १८२७ में पूर्ण किया। उनकी गद्य शैली परिमार्जित, प्रौढ़ एवं सहज बोधगम्य हैं। उनकी शैली का सुन्दरतम रूप उनके मौलिक ग्रंथ 'मोक्षमार्गप्रकाशक' में देखने को मिलता है। उनकी भाषा मूलरूप में ब्रज होते हुए भी उसमें खड़ी बोली का खड़ापन भी है और साथ ही स्थानीय रंगत भी। उनकी भाषा उनके भावों को वहन करने में पूर्ण समर्थ व परिमार्जित है। आपके संबंध में विशेष जानकारी के लिये 'पण्डित टोडरमल: व्यक्तित्व और कर्तृत्व' नामक ग्रंथ देखना चाहिये। प्रस्तुत अंश 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार के आधार पर लिखा गया है। निश्चय-व्यवहार की विशेष जानकारी के लिये 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के सप्तम अधिकार का अध्ययन करना चाहिये। * गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड भाषा टीका, लब्धिसार व क्षपणासार भाषा टीका एवं अर्थसंदृष्टि अधिकार को 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' भी कहते हैं। सात तत्त्व सम्बन्धी भूलें जब तक जीवादि सात तत्त्वों का विपरीताभिनिवेश रहित सही भावभासन' न हो. तब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैन शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर भी मिथ्यादृष्टि जीव को तत्त्व का सही भावभासन नहीं होता। जीव और अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. जैन शास्त्रों में वर्णित जीव के त्रस-स्थावरादि तथा गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि भेदों तथा अजीव के पुद्गलादि भेदों व वर्णादि पर्यायों को तो जानता है, पर अध्यात्म शास्त्रों में वर्णित भेदविज्ञान और वीतराग दशा होने के कारणभूत कथन को नहीं पहिचानता। २. यदि प्रसंगवश उन्हें जान भी ले तो शास्त्रानुसार जान लेता है. परन्त अपने को आप रूप जानकर पर का अंश अपने में न मिलाना और अपना अंश पर में न मिलाना - ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता। ३. अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान यह भी आत्माश्रित ज्ञानादि तथा शरीराश्रित उपदेश, उपवासादि क्रियाओं में अपनत्व मानता है। ४. शास्त्रानुसार आत्मा की चर्चा करता हुआ भी यह अनुभव नहीं करता कि मैं आत्मा हूँ और शरीरादि मुझसे भिन्न हैं, जैसे और ही की बातें कर रहा हो ऐसे ही शरीरादि और आत्मा को भिन्न बताता है। ५. जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त से अनेक क्रियायें होती हैं, उन्हें दोनों की सम्मिलित क्रिया मानता है। यह नहीं जानता कि यह जीव की क्रिया है, पुद्गल इसका निमित्त है; यह पुद्गल की क्रिया है, जीव इसका निमित्त है - ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। आस्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल १. हिंसादि रूप पापास्रवों को तो हेय मानता है, पर अहिंसादि रूप पुण्यास्रवों को उपादेय' मानता है; किन्तु दोनों बंध के कारण होने से हेय ही हैं। २. जहाँ वीतराग होकर ज्ञाता-दृष्टारूप रहे, वहाँ निर्बन्ध है, वही उपादेय १. उल्टी मान्यता या उल्टा अभिप्राय, ४. त्यागने योग्य, २. अन्तरंग ज्ञान, ३. अपनापन, ५.ग्रहण करने योग्य, ६.बंध का अभाव (5) DShrutes 5.6.04 shruteshik T an Patna Part-
SR No.008382
Book TitleTattvagyan Pathmala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size166 KB
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