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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहब जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।। छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो । जावे चला चाहे जहाँ पर परीग्रह मेरा नहीं ।।
छिद जावे, भिद जावे अथवा कोई ले जावे, चाहे जहाँ चला जावे, प्रलय ही क्यों न हो जावे; मैं उसकी क्यों चिन्ता करूँ; क्योंकि निश्चय से वह परिग्रह मेरा नहीं है।
(१८) अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं । अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को। है परिग्रह न असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी भोजन को चाहता नहीं है; अतः वह भोजन का परिग्रही नहीं है, वह तो वह भोजन का ज्ञायक ही है।
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्म । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणणो तेण सो होदि ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को। है परीग्रह न धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी धर्म (पुण्य) चाहता नहीं है; अतः वह धर्म का परिग्रही नहीं है, वह तो धर्म का ज्ञायक ही है।
(१९) अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं । अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को। है परिग्रह न पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी पान (पेय) को चाहता नहीं है; अतः वह पेय का परिग्रही नहीं है, वह तो पेय का ज्ञायक ही है।
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी णेच्छदि अधम्म । अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।। है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को। है परिग्रह न अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे ।।
अनिच्छुक को अपरिग्रही कहा है और ज्ञानी अधर्म (पाप) को चाहता नहीं है; अतः वह अधर्म का परिग्रही नहीं है, वह तो अधर्म का ज्ञायक ही है।
(२०) एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी । जाणगभावो णियदे णीरालंबो दु सव्वत्थ ।। इत्यादिक विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को। सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है।।
इत्यादिक अनेक प्रकार के सभी भावों को ज्ञानी चाहता नहीं है; इसलिए वह नियम से सर्वत्र निरालम्बी ज्ञायकभाव ही है।
१६.समयसार गाथा २१०
१९. समयसार गाथा २१३
१५.समयसार गाथा २०९ १७.समयसार गाथा २११
१८. समयसार गाथा २१२ २०. समयसार गाथा २१४