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________________ शुद्धात्मशतक शुद्धात्मशतक (९) ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि ह पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमे । बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।। ज्ञानी जीव अनेक प्रकार से पौद्गलिक कर्मों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्याय में परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। (१०) ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं ।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें । पुद्गलकरम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें ।। ज्ञानी जीव पुद्गल द्रव्य के अनन्त फल को जानता हुआ भी परमार्थ से परद्रव्य की पर्याय में परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। (११) ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमे । बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ।। ज्ञानी जीव अनेक प्रकार से पौद्गलिक कर्मों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की पर्याय में परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता। (१२) को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।। निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता । है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहें ।। परपदार्थों को पर एवं निज शुद्ध आत्मा को निज जानता हुआ ऐसा कौन ज्ञानी पुरुषों होगा जो परपदार्थों को 'यह मेरा है' - ऐसा कहेगा? तात्पर्य यह है कि ज्ञानी पुरुषों की परपदार्थों में अहंबुद्धि नहीं होती। (१२) को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ।। आतमा ही आतमा का परीग्रह - यह जानकर । 'परद्रव्य मेरा है' - बताओ कौन बुध ऐसा कहे? || अपने आत्मा को ही नियम से अपना परिग्रह जानता हुआ कौन ज्ञानी यह कहेगा कि यह परद्रव्य मेरा द्रव्य है? तात्पर्य यह है कि कोई भी ज्ञानी धर्मात्मा परद्रव्य में अपनापन स्थापित नहीं करता। मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।। यदि परीग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे । पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ।। यदि परद्रव्य रूप परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवपने को प्राप्त हो जाऊँ, परन्तु मैं तो ज्ञाता ही हूँ; अतः परिग्रह मेरा नहीं है। १३.समयसार गाथा २०७ १०.समयसार गाथा ७८ ९. समयसार गाथा ७६ ११.समयसार गाथा ७७ १२.समयसार गाथा ३०० १४.समयसार गाथा २०८
SR No.008380
Book TitleShuddhatma shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size66 KB
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