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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
दो गई
कुणह रई में होती वति ।।
आदसहावादण्णं सच्चित्ताचित्रमिस्सियं हवदि । तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं ।। जो आतमा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं। उन सर्व द्रव्यों को अरे परद्रव्य जिनवर ने कहा ।।
निज भगवान आत्मा से भिन्न जो भी स्त्री-पुत्रादि व रागादि सचित्त, धन-धान्यादि अचित्त एवं सेनादि मिश्र पदार्थ हैं; वे सभी परद्रव्य हैं - ऐसा सत्यवादी एवं सर्वदर्शी जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
परदवादो गई सइव्वादो हु सुग्गई होइ। इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरह इयरम्भि ।। परद्रव्य से हो दुर्गती निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ।।
परद्रव्य को अपना जानने, मानने एवं उसमें ही रमने से दुर्गति (चतुर्गति परिभ्रमण) होती है और स्वद्रव्य में अपनापन स्थापित करने से, उसे ही अपना जानने, मानने एवं उसमें ही जमने रमने से सुगति(पंचमगतिमोक्ष) होती है, ऐसा जानकर परद्रव्य से विराम लेकर स्वद्रव्य में रति करो।
(४) सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हबेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खबेइ दुट्ठट्टकम्भाई ।। नित नियम से निजद्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं। सम्यक्त्व परिणत श्रमण ही क्षय करे करमानंत हैं।।
जो श्रमण स्वद्रव्य में रत हैं, रुचिवंत हैं; वे नियम से सम्यक्त्व सहित हैं। सम्यक्त्व सहित वे श्रमण दुष्ट अष्ट कर्मों का नाश करते हैं।
तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा में अपनापन स्थापित कर अपनी आत्मा में लीन हो जाने वाले सम्यग्दृष्टी धर्मात्मा श्रमण आठकर्मों का नाश करते हैं, सिद्धदशा को प्राप्त करते हैं।
दुट्ठट्ठकम्मरहियं अणोबमं णाणविग्गहं णिच्चं । सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।। दुष्टाष्ट कर्मों से रहित जो ज्ञानविग्रह शुद्ध है। वह नित्य अनुपम आतमा स्वद्रव्य जिनवर ने कहा ।।
दुष्ट-अष्टकर्मों से रहित, अनुपम, ज्ञानशरीरी, नित्य, शुद्ध आत्मा को ही जिनेन्द्र भगवान ने स्वद्रव्य कहा है।
जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।। किन्तु जो परद्रव्यरत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों से बंधे ।।
जो साधु परद्रव्य में रत हैं, वह मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्र रूप से परिणत वह श्रमण दुष्ट अष्टकर्मों से बंधता है। ३. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १६ ४. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १४ ५. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १५
णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ।। निजद्रव्य रत यह आतमा ही योगि चारित्रवंत है। यह ही बने परमातमा परमार्थनय का कथन यह ।।
निश्चयनय का स्पष्ट कहना है कि जो अपने आत्मा में लीन हो जाता है, वह स्फुरितचरित्र योगी निर्वाण को प्राप्त करता है। ६. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १७ ७. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १८ ८. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा ८३