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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
(१) णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण झडियकम्मेण । चइऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ।। परद्रव्य को परित्याग पाया ज्ञानमय निज आतमा । शतवार उनको हो नमन निष्कर्ष जो परमातमा ।।
जिस देव ने सम्पूर्ण परद्रव्यों को छोड़कर ज्ञानमय निज भगवान आत्मा उपलब्ध किया है और कर्मों का नाश किया है, उस देव के लिए बारम्बार नमस्कार हो।
(२)
परदव्वरओ बज्झदि बिरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ।। परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी बरे। जिनदेव का उपदेश बंध-अबंध का संक्षेप में ।।
परद्रव्य में रत जीव विविध कर्मों से बंधता है और परद्रव्य विरक्त मुक्त होता है; बंध और मोक्ष के सम्बन्ध में जिनेन्द्र भगवान का संक्षेप में यही उपदेश है। १. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १ २. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा १३