________________ शुद्धात्मशतक शुद्धात्मशतक (99) देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा / जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा / / अरि-मित्रजन धन-धान्य सुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं। इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आत्मा / / शरीर, धन, सुख-दुख अथवा शत्रु-मित्रजन जीव के ये सभी संयोग ध्रुव नहीं है अर्थात् सदा के साथी नहीं है, अस्थिर हैं, विनाशीक हैं; अविनाशी ध्रुव तो एक उपयोगात्मक आत्मा ही है। (100) जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पणं विसुद्धप्पा / सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं / / यह जान जो शुद्धात्मा ध्यावे सदा परमातमा। दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा / / जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या अनकार मोह दुन्थि का क्षय करता है। एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा / जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स / / निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने / निर्वाण अर निर्वाण मग को नमन बारंबार हो / / जिन, जिनेन्द्र और श्रमणजन इसी मार्ग से सिद्धदशा को प्राप्त हुए हैं; उन निर्वाणगत सिद्धों को एवं उस निर्वाणमार्ग को बारंबार नमस्कार हो। 100. प्रवचनसार गाथा 194 99. प्रवचनसार गाथा 193 101. प्रवचनसार गाथा 199