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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
आदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण ।। स्वानुभूती गम्य है जो नियत थिर निजभाव ही। अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही ।।
हे आत्मन! अपदभूत द्रव्यभावों को छोड़कर स्थिर, नियत, एक निजभाव को जैसा का तैसा ग्रहण कर।
जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ। सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो ।। ज्ञायकस्वभावी चेतनामय जीव जिनवर ने कहा। जानना उस जीव को ही कर्म क्षय का हेतु भी ।।
जिनेन्द्र भगवान ने जीव का स्वरूप ज्ञानस्वभावी एवं चेतनासहित कहा है। यही ज्ञानस्वभावी चेतन आत्मा कर्म क्षय का कारण है।
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। ज्ञान-दर्शनमय निजातम को सदा जो ध्यावते । अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।।
आत्मा का ध्यान करता हुआ वह आत्मा दर्शन-ज्ञानमय और अपने से अनन्यमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है।
(९७) णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ।। ज्ञान-दर्शनमय निजातम को सदा जो ध्यावते । अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ।।
आत्मा का ध्यान करता हुआ वह आत्मा दर्शन-ज्ञानमय और अपने से अनन्यमय होता हुआ अल्पकाल में ही कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है।
(९८) एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । ध्रुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ।। इस तरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।
इसप्रकार मैं अपने आत्मा को ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालंब और शुद्ध मानता हूँ।
(९५) अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहि णिहिट्ठ ।। रागादि विरहित आतमा रत आत्मा ही धर्म है। भव तरणतारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।
रागादि सम्पूर्ण दोषों से रहित आत्मा में आत्मा का रत होना ही संसार से पार करनेवाला धर्म है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
९४. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा ६२
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९७.प्रवचनसार गाथा १९१
९३.समयसार गाथा २०३ ९५. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा ८५
९६. प्रवचनसार गाथा १८९ ९८. प्रवचनसार गाथा १९२