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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
(८७) जं कुणुदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स । णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ।। जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ।।
आत्मा जिस भाव को करता है, वह उस भावरूप कर्म का कर्त्ता होता है। इसप्रकार ज्ञानी ज्ञानमय भावों का और अज्ञानी अज्ञानमय भावों का कर्ता होता है।
(९०) णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।। हे भव्यजन! तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा । निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ।।
निश्चयनय का यह मत है कि आत्मा अपने को ही करता है और अपने को ही भोगता है; - ऐसा जानो।
(८८)
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ।। ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों सब ज्ञानमय । बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ।।
चूँकि ज्ञानमय भावों में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं; इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव ज्ञानमय ही होते हैं।
तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हवे किंचि । णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ।। इसलिए यह शुद्धातमा परजीव और अजीव से । कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ।।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह शुद्धात्मा जीव और अजीव परद्रव्यों में से कुछ भी ग्रहण नहीं करता और न उन्हें छोड़ता
ही है।
(८९) अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो । जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणामिस्स ।। अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों अज्ञानमय । बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ।।
अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होते हैं; इसलिए अज्ञानियों के समस्त भाव अज्ञानमय ही होते हैं।
(९२) भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविशुद्धणिम्मलं चेव । लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ।। चतुर्गति से मुक्त हो यदि चाहते हो सुख सदा । तो करो निर्मलभाव से निज आतमा की भावना ।।
यदि चतुर्गति परिभ्रमण से छूटकर शाश्वत सुख प्राप्त करना चाहते हो तो सुविशुद्ध निर्मल भगवान आत्मा की शुद्धभाव से भावना करो।
८८. समयसार गाथा १२८
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९१. समयसार गाथा ४०७
८७. समयसार गाथा १२६ ८९. समयसार गाथा १०५
९०.समयसार गाथा ८३ ९२. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा ६०