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शुद्धात्मशतक
शुद्धात्मशतक
(८१) जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दुण संकमदि दव्वे । सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ।। जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर गुण द्रव्य में । तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य परगुण द्रव्य में ।।
जो वस्तु जिस द्रव्य और जिस गुण में वर्तती है, वह वस्तु अन्य द्रव्य तथा गुण में संक्रमित नहीं होती। अन्य रूप में संक्रमित न होती हुई वह वस्तु अन्य वस्तु को परिणमन कैसे करा सकती है?
जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदं ति जंपदे लोगो। ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण ।। रण में लड़ें भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया। बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किए व्यवहार से ।।
जिसप्रकार युद्ध योद्धाओं द्वारा किये जाने पर भी 'युद्ध राजा ने किया' - इसप्रकार व्यवहार से कह दिया जाता है; उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किए - यह व्यवहार से कहा जाता है।
(८२) दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि । तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ।। कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण द्रव्य में । जब उभय का कर्त्ता नहीं तब किस तरह कर्ता करे? ।।
यह आत्मा पुद्गलमय कर्म के द्रव्य और गुणों को नहीं करता। उन दोनों को न करता हुआ वह पुद्गलकर्म का कर्ता कैसे हो सकता है?
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्य वत्तव्वं ।। ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे। पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है ।।
यह आत्मा पुद्गलद्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है; - यह सब व्यवहारनय का कथन है।
(८६) जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो। तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ।। गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से। त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ।।
जिसप्रकार व्यवहार से राजा को प्रजा के गुणों और दोषों का उत्पादक कहा जाता है; उसीप्रकार जीव को पुद्गल द्रव्य के द्रव्य और गुणों का उत्पादक व्यवहार से कहा गया है।
(८३) जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ।। बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में। करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ।।
जीव के निमित्तभूत होने पर कर्मबंध का परिणाम होता हुआ देखकर जीव ने कर्म किए - इसप्रकार उपचार मात्र से कह दिया जाता है।
८२.समयसार गाथा १०४
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८५.समयसार गाथा१०७
८१. समयसार गाथा १०३ ८३. समयसार गाथा १०५
८४. समयसार गाथा १०६ ८६. समयसार गाथा १०८