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षट्कारक अनुशीलन
स्वयं अपने को देकर अपने में से कार्य किया है और अपने ही आधार से काम करता है।
छ: कारक स्वयमेव अपने ही रूप होते हैं। अपने स्वरूप के आश्रय से शुद्ध चिदानन्द की दृष्टि करने से - स्वभाव के अवलम्बन से धर्म होता है, पुण्य-पाप के अवलम्बन से किसी को धर्म नहीं होता।
शुभराग स्वभाव का घात करता है किन्तु स्वभाव का अवलम्बन होने पर भावघाति और द्रव्यघाति कर्म नाश को प्राप्त हो जाते हैं। आत्मा शुद्ध आनन्दकंद स्वभावी शक्तिरूप है उससे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है और पूर्णता होती है।
आत्मा विकार और कर्म को दूर करता है - ऐसा कहना व्यवहार है। आत्मा शुद्ध चिदानन्द कारणपरमात्मा है । वह स्वयं ही कर्ता, कर्म, करण है, अपने में स्वभाव लेता है और अपने को ही देता है। अपने में से अपने आधार से ही धर्म प्रगट करता है। जड़कर्म को दूर किया यह तो निमित्त-कथन है। स्वभाव में लीन होते ही जड़ कर्म स्वयमेव दूर हो जाते हैं । अपने में अशुभरूपपाप परिणाम हो अथवा व्यवहार रत्नत्रय के पुण्य परिणाम हों, वे दोनों ही भाव घाति हैं - अपने स्वभाव का घात करते हैं। घाति रहित - शुद्ध चैतन्य भगवान आत्मा की दृष्टि करके अपने स्वभाव का कर्ता होकर, अपने स्वभाव प्रगट होता हुआ, अपने आधार से काम करता है - यह मोक्षमार्ग है। ऐसे छ: कारकोंरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।
द्रव्य सामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार गाथा १२६ में स्वयं के स्वतंत्र षट्कारकों को शुद्धात्मा की उपलब्धि में साक्षात् हेतु बताते हुए कहते हैं कि - यदि श्रमण कर्ता-करण-कर्म और कर्मफल आदि षट् कारकस्वरूप आत्मा ही है - ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणत ही नहीं हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।
मूल गाथा इसप्रकार है - "कत्ता करणं कम्म फलंच अप्प त्ति णिच्छिदो समणो।
परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ।। इसी भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं - जो पुरुष इसप्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल (सम्प्रदान) आदि षट्कारक रूप आत्मा ही है" यह निश्चय करके परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, ऐसे ही निश्चय से जिसका परद्रव्य के साथ सम्पर्क रुक गया है और पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रविष्ट हो गई हैं, वह शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है।
व्यवहार षटकारक का स्वरूप १. कर्ताकारक :- असद्भूत व्यवहारनय पराश्रित विकल्प है। इसलिए इस नय की अपेक्षा सभी कार्यों के कर्त्तत्व आदि का पराश्रित रूप से ही कथन किया जाता है । वेव्यवहार कारक कहे जाते हैं।
यदि निश्चयनय से देखें तब तो मिट्टी अपने प्रति नियत परिणाम स्वभाव के कारण जिस समय स्वयं स्वतंत्र रूप से घट परिणाम को जन्म देती है, उत्पन्न करती है, उस समय वहाँ घट की उत्पत्ति में निमित्त रूप में उपस्थित कुम्भकार स्वयं स्वतंत्ररूप से अपने हस्तादि की क्रिया और मन के विकल्प का ही कर्ता है परन्तु कुम्भकार एवं कुम्भ उत्पत्ति में बाह्य व्याप्ति के कारण व्यवहारनय से कुम्भकार को घट का कर्ता कहा जाता है।
वस्तुतः स्वरूप सत्ता की अपेक्षा तो उस समय मिट्टी और कुम्भकार ने एक साथ प्रथक्-प्रथक् दो क्रियायें की हैं। परन्तु दो द्रव्यों में स्वरूप सत्ता की अपेक्षा सर्वथा भेद होने पर भी अभेद की कल्पना करना असद्भूत व्यवहारनय का काम है, इसी का दूसरा नाम उपचार है। इसी नय से कुम्भकार को घट का कर्ता कहा जाता है।