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षट्कारक अनुशीलन
व्यवहार षट्कारक
ध्यान दें, यद्यपि यह नय परमार्थभूत अर्थ को स्वीकार नहीं करता, मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान कराता है; किन्तु निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी कोरी कल्पना नहीं है, निमित्त एवं उपादान का अविनाभाव सम्बन्ध है, इस कारण इसे सम्यक् नयों में ही सम्मिलित किया है।
गुरुदेव ! यदि ऐसा है तो पंचाध्यायीकार ने दो पदार्थों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध को स्वीकार करने वाले नय को नयाभास क्यों कहा है ?
अरे भाई ! क्योंकि वस्तुतः असद्भूत व्यवहार नय परमार्थभूत अर्थ को स्वीकार नहीं करता, फिर भी यदि कोई व्यवहाराभासी इसे परमार्थभूत मानता है तो उसकी यह मान्यता परमार्थभूत अर्थ का अपलाप करनेवाला होने से नयाभास है। असद्भूत व्यवहारनय नयाभास नहीं है, नय तो सम्यग्ज्ञान का अंश है।
व्यवहार कारकों का दृष्टान्त इसप्रकार है - कुम्हार कर्ता है; घड़ा कर्म है; दंड, चक्र, चीवर इत्यादि करण हैं; कुम्हार जल भरनेवाले के लिए घड़ा बनाता है, इसलिए टोकरी अपादान है और पृथ्वी के आधार पर घड़ा बनाता है, इसलिए पृथ्वी अधिकरण है। यहाँ सभी कारक भिन्न-भिन्न हैं। अन्य कर्ता हैं; अन्य कर्म हैं; अन्य कारण हैं; अन्य सम्प्रदान; अन्य अपादान और अन्य अधिकरण है। परमार्थतः कोई द्रव्य किसी का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता, इसलिए यह छहों व्यवहार कारक असत्य हैं । वे मात्र उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहे जाते हैं। निश्चय से किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ कारणता का सम्बन्ध है ही नहीं।
२. कर्मकारक :- असद्भूत व्यवहारनय से कहा जाता है कि कुम्भकार कुम्भ (घट) बनाता है। यहाँ कुम्भकार कर्ता एवं घट कर्म है। वस्तुतः कुम्भकार घट बनाने की क्रिया कभी नहीं कर सकता । वह क्रिया मात्र मिट्टी ही करती है। कुम्भकार तो मात्र घट की उत्पत्ति के समय स्वयं अपनी हाथ चलाने की क्रिया के साथ घट बनाने का विकल्प ही कर सकता है। कुम्भकार की इच्छा घट बनाने की होने पर भी वह स्वरूप सत्तापने की अपेक्षा मिट्टी से अत्यन्त भिन्न होने के कारण घट परिणमनरूप मिट्टी की क्रिया त्रिकाल में नहीं कर सकता।
जो अनादिरूढ़ लौकिक व्यवहार वश यह मानता है कि कुम्भकार स्वयं अपनी क्रिया द्वारा मिट्टी से घट बनाता है उसका ऐसा मानना असद् विकल्प है और आगम में ऐसे विकल्पों की असत्भूत व्यवहारनय के कथन में गणना कर इसे उपचरित रूप से स्वीकार किया गया है।
गुरुदेव ! 'परस्परोपग्रहोजीवानां तत्त्वार्थ सूत्र के इस सूत्र के अनुसार एक जीव द्रव्य अपने से भिन्न अन्य जीव द्रव्य का उपकार (भला) तो करता ही है। तो फिर कुम्भकार घट का निर्माण कर्ता है, इसे भी इसी उपकार के संदर्भ में मानने में क्या आपत्ति है?
भाई ! तुम्हारा स्वाध्याय तो अच्छा है, परन्तु.......वस्तुतः उपकार का अर्थ 'समीपे करोति इति उपकारः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह होता है कि घट क्रिया का कर्तृत्व कुम्हार में नहीं है; किन्तु जब मिट्टी स्वयं घटरूप परिणमती है, तब कुम्हार उसके समीप रहकर मात्र अपने हाथ हिलाने की क्रिया कर्ता है।
इसप्रकार व्यवहार से कुम्भ को कुम्भकार का कर्म कुम्भकार के समीपवर्ती होने से कहा जाता है। इसी प्रकार समीपवर्ती होने के कारण ही घट निष्पत्ति के समय चक्र-चीवर आदि करण संज्ञा तथा पृथ्वी को अधिकरण संज्ञा दी जाती है।
निश्चयनय से वस्तुस्थिति का ज्ञान कराते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव पीछे पृष्ठ १६ पर उद्धृत प्रवचनसार गाथा १२६ में कहते हैं कि :
जो श्रमण 'आत्मा ही कर्ता है, आत्मा ही करण है, आत्मा ही कर्म है, आत्मा ही फल (सम्प्रदान) है - ऐसा निश्चय कर यदि अन्यरूप नहीं परिणमता है तो वह नियम से शुद्धता को प्राप्त करता है।
ऐसे निश्चय पूर्वक स्वभाव सन्मुख होने से निश्चय ही मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। परिणामस्वरूप यह अनादि चतुर्गति भ्रमण से दुःखी जीव संसार से छूटकर सिद्धपद प्राप्त कर लेता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्ददेव