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षट्कारक अनुशीलन
व्यवहार षट्कारक
प्रवचनसार में ही प्रारंभ में कहते हैं -
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिट्टिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो।।७।। इसका अर्थ करते हुए ब्र. पण्डित हेमराजजी पाण्डे लिखते हैं - निश्चय से अपने में अपने स्वरूप का आचरणरूप चारित्र ही धर्म है, अपने वस्तुस्वरूप को धारण करने से चारित्र का नाम धर्म कहा गया है। जो धर्म है वही समभाव है तथा उद्वेगपने से रहित आत्मा का परिणाम साम्य है।
इसी गाथा की टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
‘स्वरूपेचरणं चारित्रं' स्वरूप में रमना ही चारित्र है। तात्पर्य यह है कि - अपने उपयोगरूप परिणाम के द्वारा स्व-समय में प्रवृत्त होना ही चारित्र है। वस्तु के स्वभाव रूप होने से यही धर्म है। इस सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य है शुद्ध चैतन्य का प्रकाशन।
ज्ञातव्य है कि - किसी भी स्वभावपर्याय की प्राप्ति अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभाव में उपयोग के एकाकार होने पर ही होती है। यही कारण है कि शुभोपयोग रूप छठवाँ गुणस्थान सात गुणस्थान के पतन होने पर ही होता
भूलकर अपने विकल्प द्वारा या पर की ओर झुकाव द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारक रूप पराश्रित बना हुआ है।
अब इसे अपनी पराश्रित दृष्टि एवं वृत्ति बदलकर सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा स्वाश्रित होना है, क्योंकि ऐसी स्वाश्रित दृष्टि बनाये बिना और उस दृष्टि के द्वारा स्वभाव रत्नत्रय रूप हुए बिना इसे शुद्धात्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती। इसलिए जीवन संशोधन में स्वाश्रितपने का अवलम्बन होना ही कार्यकारी है।
गुरुदेव ! जब यह जीव पराश्रितपने के विकल्प से निवृत्त होकर स्वाश्रितपने की मुख्यता से प्रवृत्त होता है, तब उसी समय मुक्त क्यों नहीं हो जाता?
अरे भाई ! दृष्टि में स्वाश्रितपने के होने पर भी चर्या में जबतक पूर्णरूप से स्वाश्रितपना नहीं होता तब तक वह संसारी ही रहता है।
गुरुदेव ! दृष्टि की अपेक्षा स्वाश्रितपने के काल में चारित्रमोह सम्बन्धी अनन्तानुबंधी कषाय का भी तो अभाव रहता है। ऐसी अवस्था में वहाँ चर्या की अपेक्षा भी तो स्वाश्रितपना हो ही जाता हैन ? ___ अरे भाई ! यह तो ठीक है; परन्तु दृष्टि की अपेक्षा स्वाश्रितपने की प्राप्ति के काल में मात्र अनन्तानुबंधी कषाय का अभाव होने से चर्या की अपेक्षा आंशिक स्वाश्रितपने की प्राप्ति ही तो हुई, अभी भी शेष अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन कषायों की चौकड़ी फिर भी है न! आगे जैसे-जैसे कषाय का अभाव होता जाता है वैसे-वैसे चर्या की अपेक्षा स्वात्मस्थिति में प्रगाढ़ता आती जाती है तथा पूर्ण स्वाश्रितपना होने पर मुक्ति भी हो जाती है।
गुरुदेव! बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में जब क्षायिक चारित्र की प्राप्ति के कारण चर्या की अपेक्षा पूर्ण प्रगाढ़ता आ जाती है तो उसी समय से इस जीव का पूर्ण स्वाश्रित जीवन प्रारम्भ हो जाना चाहिए?
अरे भाई ! ऐसी बात नहीं है; क्योंकि अभी उसके आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दरूप योग का सद्भाव बना हुआ है, इसलिए वहाँ क्षायिक चारित्र की प्राप्ति होने पर भी पूर्ण स्वाश्रितचर्या नहीं स्वीकार की गई है।
इस सम्बन्ध में षट्कारक मीमांसा के उपसंहार में सिद्धान्तशास्त्री पण्डित फूलचन्दजी ने जो विचार व्यक्त किए हैं उसका सारांश यह है कि - संसारी जीव की अवस्था (पर्याय) के होने में जहाँ निश्चय से स्व के षट्कारक होते हैं वहीं व्यवहार से पर सापेक्ष षट्कारक भी होते हैं, क्योंकि पर की ओर झुकाव भी रहता ही है। विभाव पर्याय को निमित्त सापेक्ष कहकर कारकान्तर की कल्पना की जाती है। यह अवस्था मिथ्यादृष्टि के तो होती ही है, विभावपर्याय की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के भी होती है। अत: व्यवहार कारकों का निषेध नहीं है; परन्तु अनादिकाल से यह जीव निश्चय षट्कारक रूप स्वाश्रितपने को