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षट्कारक अनुशीलन
व्यवहार षट्कारक
गुरुदेव ! चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में योग का समस्तरूप से अभाव हो जाता है, इसलिए वहाँ तो रत्नत्रय की पूर्णता होने से पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जानी चाहिए?
नहीं, क्योंकि ध्यान की प्रक्रिया के अनुसार पूर्ण स्वाधीनता का अनुभव करता हुआ भी इस भूमिका में अन्तर्मुहूर्तकाल तक रुककर ही यह जीव ऐसी अवस्था प्राप्त करता है कि तब जाकर यह पूर्ण स्वाधीनता का अधिकारी होकर पूर्ण स्वतंत्र हो जाता है।
गुरुदेव! यदि यह बात है तो पंचास्तिकाय गाथा १७२ की समय टीका में जो यह कहा गया है कि 'अनादिकाल से भेदवासित बुद्धि होने के कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनय से भिन्न साध्य-साधनभाव का अवलम्बन लेकर सुख से तीर्थ का प्रारम्भ करते हैं' सो वहाँ ऐसा क्यों कहा गया है ? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इस जीव का मोक्षमार्ग का प्रारम्भ पराश्रितपने से होता
(१) पुद्गल स्वतंत्ररूप से द्रव्यकर्म को करता होने से पुद्गल स्वयं ही कर्ता है (२) स्वयं द्रव्यकर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाला होने से पुद्गल स्वयं ही करण है; (३) द्रव्यकर्म को प्राप्त करता-पहुँचता होने से द्रव्यकर्म कर्म है अथवा द्रव्यकर्म से स्वयं अभिन्न होने से पुद्गल स्वयं ही कर्म (कार्य) है; (४) अपने में से पूर्व परिणाम का व्यय करके द्रव्यकर्मरूप परिणाम करता होने से तथा पुद्गलद्रव्यरूप ध्रुव रहता होने से पुद्गल स्वयं ही अपादान है; (५) अपने को द्रव्यकर्मरूप परिणाम देता होने से पुद्गल स्वयं ही सम्प्रदान है; (६) अपने में अर्थात् अपने आधार से द्रव्यकर्म करता होने से पुद्गल स्वयं ही अधिकरण है।
इसीप्रकार (१) जीव स्वतंत्ररूप से जीवभाव को करता होने से जीव स्वयं ही कर्ता है; (२) स्वयं जीवभावरूप से परिणमित होने की शक्तिवाला होने से जीव स्वयं ही करण है; (३) जीवभाव को प्राप्त करता – पहुँचता होने से जीवभाव ही कर्म है अथवा जीवभाव से स्वयं अभिन्न होने से जीव स्वयं ही कर्म है; (४) अपने में से पूर्व भाव का व्यय करके (नवीन) जीवभाव करता होने से और जीवद्रव्यरूप से ध्रुव रहने से जीव स्वयं ही अपादान है; (५) अपने को जीवभाव देता होने से स्वयं ही सम्प्रदान है; (६) अपने में से अर्थात् अपने आधार से जीवभाव करता होने से जीव स्वयं ही अधिकरण है।
इसप्रकार पुद्गल की कर्मोदयादिरूप से या कर्मबंधादिरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में पुद्गल ही स्वयमेव छह कारकरूप से वर्तता है इसलिए उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है तथा जीव की औदयिकादि भावरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में जीव स्वयं ही छह कारकरूप से वर्तता है इसलिए उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है। पुद्गल की और जीव की उपर्युक्त क्रियाएँ एक ही काल में वर्तती हैं, तथापि पौद्गलिक क्रिया में वर्तते हुए पुद्गल के छह कारक जीवकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रिया में वर्तते हुए जीव के छह कारक पुद्गलाकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। वास्तव में किसी द्रव्य के कारकों को किसी
अरे भाई ! ज्ञानमार्ग का अनुसरण करनेवाले जीव के बीच-बीच में अरहंतादि भक्तिविषयक जो राग का उत्थान होता है उस समय यह श्रद्धेय है, यह अश्रद्धेय है; यह श्रद्धाता है, यह श्रद्धान है; यह ज्ञेय है, यह अज्ञेय है; यह ज्ञाता है, यह ज्ञान है; यह आचरणीय है, यह अनाचरणीय है; यह आचरिता है
और यह आचरण है। इसप्रकार कर्तव्याकर्तव्य तथा कर्ता-कर्म के विभाग के अवलोकन द्वारा जिन्हें अनुकरण करने योग्य अतिहृदयग्राही उत्साह उत्पन्न हुआ है, वे बिना हठ के रत्नत्रय तीर्थ का सेवन करने में सफल होते हैं। यह उक्त कथन का आशय है।
गुरुदेव ! यहाँ तक तो सब समझ में आ गया अब यह बतायें कि विभावपर्याय की उत्पत्ति में निश्चय षट्कारक कैसे प्रवृत्त होते हैं ? कैसे घटित होते हैं ?
हाँ, हाँ; सुनो ! पंचास्तिकाय की गाथा ६२ के भावार्थ में कहा है कि -