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षट्कारक अनुशीलन
व्यवहार षट्कारक
अन्य द्रव्य के कारकों की अपेक्षा नहीं होती।
गुरुदेव ! पंचास्तिकाय की ही गाथा ६३ में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि - यदि कर्म एवं जीव के अन्योन्य अकर्तापना है तो अन्य का दिया फल अन्य क्यों भोगे? जबकि आगम के अनुसार शुभाशुभ कर्मों का फल जीव भोगता है - ऐसे अनेक उल्लेख आगम में उपलब्ध हैं ? ___ हाँ, तुम्हारा कहना ठीक है; परन्तु कर्मयोग्य पुद्गल अंजनचूर्ण से भरी हुई डिब्बी के समान समस्त लोक में व्याप्त हैं, फैले हुए हैं। इसकारण जहाँ जीव है, वहीं वे भी स्थित हैं। आत्मा जिस क्षेत्र में और जिस काल में राग-द्वेषरूप अशुद्धभावों से परिणमित होता है, उसी क्षेत्र में स्थित कार्माणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध राग-द्वेषरूप अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर उसी काल में स्वयं अपनी तत्समय की योग्यता जीव के प्रदेशों में विशेष प्रकार से परस्पर अवगाहरूप से कर्मपने को प्राप्त होते हैं। जीव उन कर्मों का कर्ता नहीं है। इसप्रकार जीव द्वारा किए बिना ही पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमित होते हैं।
गुरुदेव ! कृपया बताइये कि - क्या जीव स्वतंत्ररूप से विकार करता है ? अथवा कर्मोदय के कारण विकार होता है?
भैया ! तुम्हारा प्रश्न बहुत अच्छा है। आगम में विभिन्न अपेक्षाओं से दोनों प्रकार के कथन मिलते हैं, इसकारण भोले प्राणी उक्त कथनों की जुदी-जुदी अपेक्षायें न समझने के कारण भ्रमित हो जाते हैं?
पंचास्तिकाय गाथा ६६ की टीका में इस प्रश्न का सुन्दर समाधान किया है। वहाँ जो कहा है उसका सारांश यह है कि - जिसप्रकार सूर्यचन्द्र की किरणों का निमित्त पाकर बादलों के रंग-बिरंगे रूप और इन्द्रधनुष आदि पुद्गल द्रव्यों की अनेक प्रकार की संरचना पर के द्वारा किए बिना स्वत: होती दिखाई देती है, उसी प्रकार द्रव्य कर्मों की बहुप्रकारता पर से अकृत है तथा जिस प्रकार द्रव्यकर्मों की विचित्रता बहुप्रकारता अन्य द्वारा नहीं की जाती, पर
से अकृत है; उसीप्रकार जीव का विकार भी परकृत या कर्मकृत नहीं है।
देखो, पूर्वकाल में बाँधे हुए द्रव्यकर्मों का निमित्त पाकर जीव अपनी अशुद्ध चैतन्यशक्ति द्वारा स्वयं रागादि भावों का कर्ता बनता है और पुद्गलद्रव्य भी उन रागादि भावों का निमित्त पाकर स्वत: कर्मबन्ध को प्राप्त होते हैं।
और भी देखो, पण्डित टोडरमलजी कहते हैं - "...........और तत्त्व निर्णय करने में कहीं कर्म का दोष तो है नहीं, किन्तु तेरा ही दोष है। तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक में लगाता है; परन्तु जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव न हो । तुझे विषय-कषाय रूप ही रहना है, इसलिए झूठ बोलता है। यदि मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो तू ऐसी युक्ति क्यों बनाये।"
- मोक्षमार्गप्रकाशक, अ.९, पृष्ठ-३११ पण्डित दीपचन्दजी शाह ने लिखा है कि - यह अविद्या तेरी ही फैलाई है। तू अविद्यारूप कर्म में न पड़कर स्व को उनसे युक्त न करे तो जड़ का, कर्मों का कोई जोर नहीं है। अनुभवप्रकाश, पृष्ठ-३७
तात्पर्य यह है कि विकार तो अपने स्वयं के षट्कारकों से ही होता है फिल भी जहाँ-जहाँ भी ‘कौक्सकिशुद्धविकास्महोत्रा हूँ ऐसा लिखा हो, वहाँ निमित्त की मुख्यता से किया गयाथन समझना चाहिए ये कथनों में कोई विशालही समझना चाहिारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही, अपने | में गुरुदेअपत्यकदेन्द्रियों के विषवत्आत्मा कोटुमख की कोरमामही ?एक क्रिया है। इसलिए मैं ग्रहण करता हूँ का अर्थ है 'मैं चेतता हँ' चेतता हुंआ ही चेतता हूँ। चेतूते हुए के द्वारा ही चेतता हूँ, चेंतते। हुए कि लरणाचतता है, चत् हुँई समुलिचततशीर, चूतथा ही मुम्चतता निश्च्चतताका आश्चत ही है अर्थात हस्ट्रियसभाको सीववाधिक कवचम्मात्माक्वा ही,अशुद्ध स्वभाव है। अशुद्ध स्वभावसोंपआिमिख्याति होइएउपमेव इन्द्रियसुखरूप होता है। उसमें शरीर कारण नहीं है, क्योंकि