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षट्कारक अनुशीलन
निश्चय षट्कारक
सरल शब्दों में कहें तो यहाँ यह कहा है कि जो स्वतंत्रया-स्वाधीनता से करता है वह कर्ता है; कर्ता जिसे प्राप्त करता है वह कर्म है; साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं; कर्म जिसे दिया जाता है अथवा जिसके लिए किया जाता है वह सम्प्रदान है; जिसमें से कर्म किया जाता है, वह ध्रुववस्तु अपादान है और जिसमें अर्थात् जिसके आधार से कर्म किया जाता है वह अधिकरण है। यह छह कारक व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार के हैं। जहाँ पर के निमित्त से कार्य की सिद्धि कहलाती है वहाँ व्यवहार कारक है और जहाँ अपने ही उपादान कारण से कार्य की सिद्धि कही जाती है वहाँ निश्चय कारक हैं।
निश्चय कारकों का दृष्टान्त इसप्रकार है - मिट्टी स्वतंत्रतया घटरूप कार्य को प्राप्त होती है इसलिए मिट्टी कर्ता है और घड़ा कर्म है अथवा घड़ा मिट्टी से अभिन्न है इसलिए मिट्टी स्वयं ही कर्म है; अपने परिणमन स्वभाव से मिट्टी ने घड़ा बनाया इसलिए मिट्टी स्वयं ही करण है; मिट्टी ने घड़ारूप कर्म अपने को ही दिया इसलिए मिट्टी स्वयं सम्प्रदान है; मिट्टी ने अपने में से पिंडरूप अवस्था नष्ट करके घटरूप कर्म किया और स्वयं ध्रुव बनी रही, इसलिए वह स्वयं ही अपादान है, मिट्टी ने अपने ही आधार से घड़ा बनाया इसलिए स्वयं ही अधिकरण है। इसप्रकार निश्चय से छहों कारक एक ही द्रव्य में हैं। परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपने को, अपने से, अपने लिए, अपने में से, अपने में ही करता है, इसलिए निश्चय छह कारक ही परम सत्य हैं।
उपर्युक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनन्त शक्तिरूप सम्पदा से परिपूर्ण है इसलिए स्वयं ही छह कारकरूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ हैं, उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना
निरर्थक है।
शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही छह कारकरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है । वह आत्मा स्वयं अनन्तशक्तिवान ज्ञायकस्वभाव से स्वतंत्र है इसलिए स्वयं ही कर्ता है, स्वयं अनन्तशक्तिवाले केवलज्ञान को प्राप्त करने से केवलज्ञान कर्म है, अथवा केवलज्ञान से स्वयं अभिन्न होने से आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्त शक्तिवाले परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से केवलज्ञान को प्रगट करता है, इसलिए आत्मा स्वयं ही करण है: अपने को ही केवलज्ञान देता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपने में से मति श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है इसलिये और स्वयं सहज ज्ञान स्वभाव के द्वारा ध्रुव रहता है इसलिये स्वयं ही अपादान है, अपने में ही अर्थात् अपने ही आधार से केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये स्वयं ही
अधिकरण है। इस प्रकार स्वयं छह कारकरूप होता है, इसलिये वह स्वयंभू' कहलाता है। अथवा, अनादिकाल से अति दृढ़ बँधे हुए (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतरायरूप) द्रव्य तथा भाव घातिकर्मों को नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ अर्थात् किसी की सहायता के बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ इसलिये 'स्वयंभू' कहलाता है।
इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी ने कहा है कि - प्रवचनसार में साररूप यह गाथा बहुत उत्कृष्ट है। आत्मा अपनी मोक्ष पर्याय प्रगट करता है वह अपने कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे छ: कारकोंरूप होकर करता है। स्वयं शुद्ध चिदानन्द निर्मल है। आत्मा स्वयं, पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर शुद्ध चैतन्य स्वभाव की लीनता करके स्वयं कर्ता होकर धर्म पर्याय प्रगट करता है और स्वयं कर्ता होकर मोक्षरूपी फल प्रगट करता है । व्यवहार होते हुये भी उसे हेय और ज्ञेयमात्र जानकर-व्यवहार रत्नत्रय के अवलम्बन लिए बिना ही - एकमात्र स्वभाव का अवलम्बन लेकर आत्मा स्वयं कर्त्ता होकर, अपना कार्य करता है। इस तरह आत्मा ने अपने साधन द्वारा,